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जाता है और वह कर्मचेतना बन जाती है। इस प्रकार ज्ञानचेतना या विशुद्ध अनुभूति तनावों का कारण नहीं होती, किन्तु उस अनुभूति की दशा में यदि चेतना राग-द्वेष से युक्त बनती है तो वह ज्ञानचेतना कर्मचेतना में बदल जाती है और इससे नियमतः तनाव उत्पन्न होते हैं। जहाँ तक कर्मफलचेतना का प्रश्न है, जब साधक निरपेक्ष होकर उसके प्रति द्रष्टाभाव रखता है, तब तक वह बंधक नहीं होता है और उससे तनाव भी उत्पन्न नहीं होता है। राग-द्वेष से युक्त कर्मफल चेतना की स्थिति नए कर्म चेतना को जन्म भी देती है और तनाव भी उत्पन्न करती है। इसी दृष्टि से समयसार नाटक में बनारसीदासजी ने कहा है कि -ज्ञानचेतना मुक्ति बीज है और कर्मचेतना संसार का बीज है। इन तीनों चेतनाओं में ज्ञानचेतना को परमात्मा, कर्मफल चेतना को अन्तरात्मा का और कर्मचेतना को बहिरात्मा का विशेष लक्षण कहा जा सकता है। इसी आधार पर हम यह भी कह सकते हैं कि --व्यक्ति तनावमुक्त तभी होता है, जब ज्ञान-चेतना होती है, क्योंकि उसमें संकल्प-विकल्प नहीं होते, वह मात्र ज्ञाताभाव है, परमात्मदशा है। कर्मचेतना में कर्त्ताभाव होने के कारण तनावयुक्त अवस्था है, क्योंकि इसमें इच्छाएँ जाग्रत होती रहती हैं। __कर्मफलचेतना में संकल्प-विकल्प न होने पर वह अन्तरात्मा की अवस्था है, अर्थात् तनावमुक्ति के लिए प्रयास है। यद्यपि प्रत्येक साधक इन तीनों प्रकार की चेतनाओं में मात्र साक्षीभाव या द्रष्टाभाव रखे और संकल्प-विकल्प से युक्त न बने, तो ज्ञानचेतना और कर्मफलचेतना दोनों अबंधक रहती है, तनावों को जन्म नहीं देती है, अतः साधक को चाहिए कि वह ज्ञानचेतना और कर्मफलचेतना में मात्र साक्षीभाव से जीने का प्रयास करे और कर्मचेतना से बचे, तभी वह तनावों से मुक्त रह सकता है और तनावों से मुक्त रहकर नए कर्मों का बंध न करके एक दिन विशुद्ध ज्ञाता-द्रष्टा बन जाता है। यही तनावमुक्ति की शुद्ध अवस्था है।
15 'समयसार नाटक' - अधिकार 10, गा. 85, 86
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