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3. श्लिष्ट मन - यह मन की तनावमुक्त अवस्था है, क्योंकि यह मन स्थिर होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह चित्त की अन्तर्मुखी अवस्था है। इस अवस्था में तनावों की उत्पत्ति नहीं होती। इसमें तनाव का अभाव होता है। मन का स्वभाव चचलता है, वह बाहर जाता तो है, किन्तु साधक उसे स्थिर बनाए रखता है। इस स्थिरता में शांति का अनुभव होता है और साधक पूर्णतः तनावमुक्ति के लिए प्रयत्नशील होता है! 4. सुलीन मन - यह पूर्णतः शांति व तनावमुक्ति की अवस्था है, जिसमें संकल्प-विकल्प एवं मानसिक वृत्तियों का लय हो जाता है। इस अवस्था में तनाव उत्पन्न करने वाली सभी वासनाओं का विलय हो जाता है। यह परमानन्द की अवस्था है।
इस प्रकार मन की जो चार अवस्थाएँ हैं, उनमें प्रथम दो अवस्थाएँ तनावयुक्त अवस्थाएँ हैं, तीसरी तनावों को समाप्त करने की होती है और चौथी में तनाव समाप्त हो जाता है।
उत्तराध्ययनसूत्र में महावीर कहते हैं कि -मन के संयमन से एकाग्रता आती है, जिससे साधक तनावमुक्त्ति की दिशा में अग्रसर होता जाता है।
राग व द्वेष तनाव के मूलभूत हेतु - ___ संसार में दो तरह के पदार्थ हैं। एक चेतन (जीव) और दूसरा अचेतन (अजीव)। चेतन पदार्थ वे होते हैं, जिन्हें सुख-दुःख की संवेदनाएँ होती है और अजीव तत्त्व में अनुभव करने की या जानने की शक्ति नहीं होती और न उसे सुख-दुःख की वेदना होती है। वस्तुतः सभी जीवों के सुख-दुःख को अनुभव करने की क्षमता अलग-अलग होती है। जीव-जाति की अपेक्षा एक होते हुए भी व्यक्तित्त्व की अपेक्षा सब अलग-अलग हैं। सभी जीवों में तनावमुक्त होने की उत्कृष्ट संभावना विद्यमान है। जैन शब्दावली में कहें तो प्रत्येक भव्य जीव में परमात्मा बनने की क्षमता है। जीव का परमात्म अवस्था अर्थात् तनावमुक्त
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