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अरति यह नोकषाय रति का विपरीत है । इन्द्रिय-विषयों में अरूचि ही अरति है। अरूचि का भाव ही विकसित होकर घृणा और द्वेष बनता है।
घृणा या जुगुप्सा अरूचि का ही विकसित रूप घृणा है। जब कोई वस्तु या व्यक्ति अरूचिकर लगता है, तो वह अरति होता है, किन्तु जब किसी वस्तु से नफरत सी हो जाती है, तो वह घृणा या जुगुप्सा होती है। जुगुप्सा हमारे मन-मस्तिष्क में होती है और हमारे मानसिक संतुलन को बिगाड़ देती है और मानसिक संतुलन बिगड़ना अर्थात् तनाव का पैदा होना है । यह भी क्रोध कषाय का कारण है ।
भय
किसी वास्तविक या काल्पनिक तथ्य से आत्मरक्षा के निमित्त बच निकलने की प्रवृत्ति ही भय है । क्रोध के आवेग में आक्रमण का प्रयत्न होता है, किन्तु भय के आवेग में आत्मरक्षा का प्रयत्न होता है । भय भी एक प्रकार का तनाव है। जब तक मन में काल्पनिक भय या डर बना हुआ रहता है तब तक व्यक्ति किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं कर पाता और साथ ही अपना आत्मविश्वास खो देता है। एक हारा हुआ व्यक्ति तनाव में रहकर अपने जीवन को व्यर्थ ही गंवा देता है ।
जैनागमों में भय सात प्रकार के कहे गए हैं। जैसे
1. इहलोक भय इसका अर्थ इस लोक या संसार से नहीं है । इसका अर्थ जाति से है, अर्थात् मनुष्यों के लिए मनुष्यों से उत्पन्न होने वाला
भय ।
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2. परलोक भय यहां परलोक से अर्थ स्वर्ग या नरक न होकर अन्य जाति या विजातियों से है। जैसे मनुष्य को पशुओं से भय ।
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3. आदानभय
जब कोई दूसरा हमें भावनात्मक दुःख देता है तब हम सबसे ज्यादा तनाव में रहने लगते हैं। दूसरों से मिलने वाले दुःख का
भय ही आदान भय है ।
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