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राग-द्वेष रूप विकार को उत्पन्न करता है। समयसार में भी आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं कि -"रत्तो बंधदि कम्म”, अर्थात् जीव रागयुक्त होकर कर्म बांधता है। आगे लिखते हैं - "ण य वत्थुदो दु बंधो, अज्झवसाणेण बंधोत्थि", कर्म बंध वस्तु में नहीं, राग और द्वेष के अध्यवसाय-संकल्प से होता है। राग की जैसी मंद, मध्यम और तीव्र मात्रा होती है, उसी के अनुसार मंद, मध्यम और तीव्र कर्मबंध होते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो तनाव स्तर इसी पर आधारित होता है।
उपर्युक्त आधारों पर हम यह कह सकते हैं कि तनाव का मुख्य कारण राग-द्वेष ही हैं वस्तुतः जैनधर्म के अनुसार जो कर्मबंध के या दुःख के कारण हैं, मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि से वे ही तनाव के हेतु हैं। ___राग व द्वेष दोनों ही जीवन रूपी सिक्के के दो पहलु हैं। जहाँ राग है, वहाँ द्वेष है और ये दोनों ही जीवन की सुख-शांति को भंग करते रहते हैं। प्रत्येक जीव में राग-द्वेष पाये जाते हैं। जो वस्तु हमें प्रिय लगती है उस पर राग और अप्रिय पर द्वेष के कारण व्यक्ति स्वयं को तनावग्रस्त बना लेता है। आज व्यक्ति ही क्या, अपितु पूरा विश्व ही तनावों से ग्रस्त है। इसका मुख्य कारण राग-द्वेष ही है। राग दृष्टि व्यक्ति को इसलिए तनावयुक्त बनाती है, क्योंकि उसमें किसी भी वस्तु या व्यक्ति की प्राप्ति की चाह या ममत्त्व-भाव उत्पन्न होते हैं। वह प्रिय को पकड़कर रखना चाहता है और जब तक व्यक्ति 'स्व' को विस्मृत कर 'पर' को पकड़ना चाहता है, वह तनावरहित नहीं हो सकता, क्योंकि उसे सदैव प्रिय के वियोग की चिंता या भय रहेगा और उसे खोने पर दुःख होगा। इसलिए जहाँ चाह है, वहाँ तनाव है। अगर नाविक कहे कि किनारा नहीं छोडूंगा, तो वह कभी भी नदी पार नहीं कर सकता है, उसी
" वही - 32/101 28 समयसार - 150 1° वही - 265 9 जतिभागगया मत्ता, रागादीणं तहा चयो कम्मे - (अ) नि.भा. 5164 (ब) बृह.भा. 2515
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