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"अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे।
से केयणं अरिहए पूरइत्तए। 33 अर्थात् यह मनुष्य अनेकचित्त है, अर्थात् अनेकानेक कामनाओं के कारण मनुष्य का चित्त (मन) बिखरा हुआ है। इन कामनाओं की पूर्ति का प्रयास तो चलनी को भरने के प्रयास के समान है।
इच्छाओं, आकांक्षाओं और कामनाओं का जन्म स्थल मन ही है और जब ये कामनाएँ खत्म नहीं होती या पूर्ण नहीं होती तो मन में तनाव उत्पन्न होता है।
तनाव और मन का सम्बन्ध बताते हुए तथा तनाव आने पर मन को किस प्रकार संयमित रखना चाहिए, यह बताते हुए लिखा है -“दुक्खेन पुढे धुयमायएज्जा 34 अर्थात् दुःख आ जाने पर भी मन पर संयम रखना चाहिए। कहने का तात्पर्य यही है कि तनावग्रस्त होने पर भी मन में संयम रखने पर तनावमुक्त स्थिति प्राप्त होती है। तनाव से ही बचने के लिए कहा गया है -'न सव्व सव्वत्थभिरोयएज्जा' हर कहीं, हर किसी वस्तु में मन को मत लगा बैठिए।
तनाव से मन या चित्तवृत्ति प्रभावित होती है और प्रभावित चित्तवृत्ति शरीर में तनाव उत्पन्न करती है। आचार्य श्री महाप्रज्ञ का भी यही मानना है कि शारीरिक बीमारियों का कारण मनोभाव ही है और यह मनोभाव ही शरीर में तनाव उत्पन्न करते हैं।36
। अतः जैनदर्शन को यह मानने में कोई बाधा नहीं आती है, तनाव एक मनोदैहिक अवस्था है, जिसमें मन और शरीर एक दूसरे को प्रभावित करते रहतें है और जब यह प्रभाव अति तीव्र होता है तो उसको तनाव कहा जाता है। जैनदर्शन न तो स्पिनोज़ा के समान मन और शरीर में समान्तरवाद मानता है
आचारांगसूत्र – 1/3/2 34 सूत्रकृतांगसूत्र – 1/7/29 15 उत्तराध्ययनसूत्र – 21/15 36 देखें पुस्तक - चित्त और मन, मन का शरीर पर प्रभाव
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