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और बौद्धदर्शन के कामावचर के समान ही है। तीनों के लक्षण एक समान ही
इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि चित्त-वृत्तियों या वासनाओं अथवा विषयों के प्रति आसक्ति का विलयन ही तनावमुक्ति का साधन है।
बौद्धदर्शन में चैत्तसिक धर्म और तनाव
बौद्धदर्शन में बावन चैत्तसिक धर्म माने गए है।43 सभी चैतसिक धर्म वे तथ्य हैं, जो चित्त की प्रवृत्ति के हेतु हैं। हेतु के आधार पर चित्त दो प्रकार का माना गया है -
1. अहेतुक एवं 2. सहेतुक
1. अहेतुक चित्त - जिस चित्त की वृत्ति में लोभ, द्वेष आदि कोई कार्य नहीं होते। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि जिस चित्त में तनाव उत्पत्ति का कोई हेतु नहीं रहता है, वह अहेतुक चित्त है, तनावमुक्त चित्त है।
2. सहेतुक चित्त - जिस चित्त की वृत्ति में लोभ-द्वेष और मोह तथा अलोभ, अद्वेष और अमोह - इन छह हेतुओं में से कोई भी हेतु होता है, वह सहेतुक चित्त है। इस चित्त में तनाव उत्पत्ति के हेतु निहित रहते हैं, क्योंकि यहाँ संकल्प-विकल्प तो होते ही हैं। अलोभ, अद्वेष और अमोह चित्त में भी दूसरे के प्रति परोपकार की वृत्ति होने के कारण या दूसरों के भी हित की चिन्ता रहने के कारण यह अलोभ, अद्वेष और अमोह रूप चित्त भी सहेतुक होता है। यह पुण्य रूप चित्त है।
डॉ. सागरमल जैन का कहना है -"मनुष्य जिस किसी कार्य में प्रवृत्त होता है, वह इन छह हेतुओं में से किसी एक को लेकर प्रवृत्त होता है।
' अभिधम्मत्थसंगहो - चैत्तिसिक संग्रह विभाग, पृ. 10-31 "जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. 464
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