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में रमण करता है। जैनदर्शन में कर्म-बंध का कारण मोहनीय कर्म को माना गया है और यही मोहनीय कर्म तनावग्रस्तता का कारण भी है। वस्तुतः अन्तरात्मा को चारित्रमोहनीय कर्म का उदय विद्यमान रहने से वह विषयोपभोग में प्रवृत्ति तो करता है, किन्तु उसमें लिप्त या आसक्त नहीं होता । अन्तरात्मा संसार में रहकर सांसारिक कार्यों से विरक्त होकर तप-संयम को ग्रहण करती है और पूर्व कर्मों की निर्जरा व नये कर्मों का संवर करती हुई चार घातीकर्म का क्षय करके परमात्मा हो जाती है ।
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व्यक्ति के अंदर वासना और विवेक दोनों ही विद्यमान रहते हैं । वासनाएँ तनाव उत्पन्न करती हैं तो विवेक वासनाओं को शांत करने का प्रयत्न करता है । ये वासनाएँ ही व्यक्ति में कषायादि प्रवृत्तियाँ लाती हैं। कषायरूपी आत्मा का चित्त कभी भी शांत नहीं रहता । अन्तरात्मा वह होती है, जिसमें वासनाओं और कषायों का पूर्णतः अभाव होता है, उसमें विवेक जागृत हो जाता है, जो व्यक्ति को तनावमुक्ति के लिए अग्रसर करता है। तनावमुक्त व्यक्ति सदैव यही प्रयत्न करता है कि उसे कभी तनावग्रस्तता का अनुभव नहीं हो, इसलिए वह तनावमुक्त अवस्था के हेतु प्रयत्न करता रहता है। वह यही चाहता है कि वह पूर्णतः तनावमुक्त हो जाए और कभी तनावग्रस्त न रहे।
अन्तरात्मा भी वही होती है, जो परमात्म स्वरूप की उपलब्धि में सतत् रूप से साधनारत् रहती है। विवेकयुक्त आत्मा राग-द्वेष से ग्रस्त नहीं होता । जहाँ राग- द्वेष नहीं, वहाँ सुख - दुःख या संयोग-वियोग में हर्ष - विषाद भी नहीं होता है और ऐसा व्यक्ति तनावमुक्त होता है ।
परमात्मा का स्वरूप व तनावमुक्ति त्रिविध आत्मा में अंतिम आत्मा को परमात्मा कहा गया है। आत्मा की यही तीसरी अवस्था पूर्णतः तनावमुक्ति की अवस्था है। प्रारम्भ में ही कहा गया है कि पूर्णतः तनावमुक्ति की अवस्था ही मोक्ष की अवस्था है। जैनदर्शन के अनुसार परमात्मा इच्छा-आकांक्षा, राग-द्वेष से रहित होते हैं । अन्तरात्मा में व्यक्ति साधक होता है और परमात्म-स्वरूप की
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