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को एक ही मानता है। दैहिक सुख-सुविधा को ही आत्मसुख मान लेता है। ऐसी मिथ्यादृष्टि रखने वाला व्यक्ति तनावयुक्त अवस्था को प्राप्त होता है और जो भी तनावयुक्त अवस्था को प्राप्त होता है, वह बहिरात्मा है, क्योंकि जैनाचार्यों के अनुसार जो सम्यकदृष्टि नहीं है वह बहिरात्मा है। 'कुन्दकुन्द की दृष्टि में जिस आत्मा की सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन एवं सम्यक्चारित्र - इन रत्नत्रय की साधना में श्रद्धा नहीं होती, वह बहिरात्मा है। योगिन्दुदेव बहिरात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि -जो रागादिभाव हैं, वे कषायरूप हैं और जब तक अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय रहता है, तब तक व्यक्ति मिथ्यादृष्टि होता है। मिथ्यादृष्टि ही बहिरात्मा है। यह मिथ्यादृष्टि ही व्यक्ति को तनावग्रस्त कर देती है। वस्तुतः जैन आचार्यों ने बहिरात्मा के जो लक्षण कहें हैं, मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में वही तनाव के मुख्य कारण हैं।
अन्तरात्मा एवं तनावमुक्ति का प्रयास –अन्तरात्मा आत्मा की वह अवस्था है, जिसमें व्यक्ति साधक बन जाता है और पूर्णतः तनावमुक्ति के लिए प्रयत्न करने लगता है। अन्तर्मुखी आत्मा देहात्म बुद्धि से रहित होता है, क्योंकि वह आत्मा और शरीर अर्थात् स्व और पर की भिन्नता को भेदविज्ञान के द्वारा जान लेता है। जो बहिर्मुख आत्मा है वह बहिरात्मा है और इसके विपरीत जो बहिर्मुखता से विमुख आत्मा है, वही अन्तरात्मा है। बहिरात्मा के लक्षण ही तनाव के मुख्य कारण हैं तो अन्तरात्मा बनना ही तनावमुक्ति का हेतु है।
समयसार नाटक (साध्यसाधक द्वार) में लिखा है कि जिसके हृदय में मिथ्यात्वरूपी अन्धकार का नाश हो गया है, जिनकी मोह-निद्रा समाप्त हो गई है, जो संसार दशा से विरक्त हो गए हैं, वे ही आत्माएँ अन्तरात्मा है।" यह
नियमसार, गाथा- 149, 150
परमात्मप्रकाश - 2/41 10 मोक्खपाहुड - 5, 9 । समयसार नाटक - बनारसीदासजी, 4
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