________________
___101
तनावयुक्त अवस्था ही होती है। तनावयुक्त व्यक्ति स्वयं भी दुःखी रहता है व दूसरों को भी दुःख (तनाव) देता है।"
जैनधर्म में इन्द्रियादि की भोगाकांक्षा ही संसार-चक्र का कारण है और यह संसार ही दुःख (तनाव) की खान है। तनावमुक्ति के लिए संसार-सागर को पार करना होगा, किन्तु बहिरात्मा संसार में ही आसक्त होती है और जो संसार में ही आसक्त है वह कभी तनावमुक्त नहीं हो सकता। विषयातुर मनुष्य अपने भोगों के लिए संसार में वैर (तनांव) बढ़ाता रहता है। उत्तराध्ययनसूत्र में लिखा है कि सभी काम-भोग अन्ततः दुःखावह (दुःखद) ही होते हैं।' जो व्यक्ति बाह्य-पदार्थों में अपनेपन का आरोपण करता है, जो अपना नहीं है, उसे अपना मानता है वह तनावग्रस्त हो जाता है, क्योंकि जैनदर्शन के अनुसार आत्मा के सिवाय सभी बाह्य वस्तुएँ नश्वर हैं, नष्ट होने वाली हैं और जब किसी प्रिय वस्तु या व्यक्ति के नष्ट होने का बोध होता है तो व्यक्ति के मन को आघात पहुंचता है और वह दुःखी हो जाता है, या तनावग्रस्त बन जाता है।
व्यक्ति की दैहिक वासना कभी शांत नहीं होती। वह वासनाओं की पूर्ति हेतु स्व को भूलकर पर-पदार्थों में ममत्व बुद्धि का आरोपण करता है और उनको ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य मानता है। वस्तुतः ये वासनाएँ ही व्यक्ति को तनावग्रस्त बनाती हैं।
वासनाओं की पूर्ति एक ऐसा लक्ष्य है जो कभी पूर्ण नहीं किया जा सकता, क्योंकि एक इच्छा पूर्ति होते ही दूसरी इच्छा या कामना जन्म ले लेती है। व्यक्ति इन वासनाओं के जाल में इतना मग्न हो जाता है कि उसे आत्मा के स्वरूप का भान ही नहीं रहता है। वह शरीर और शारीरिक मांगों की पूर्ति को ही सर्वस्व मान लेता है। हम यहाँ तक भी कह सकते हैं कि वह देह और आत्मा
“आतुरा परितावेति – आचारांगसूत्र – 1/1/6
जे गुणे से आवट्टे, जे आवट्टे से गुणे - आचारांगसूत्र – 1/1/5 • वेरं वड्ढेइ अप्पणो – आचारांगसूत्र, 1/2/5 'सव्वे कामा दुहावहा – उत्तराध्ययनसूत्र, 13/16
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org