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अध्याय-4 जैनदर्शन की विविध अवधारणाएँ और तनाव से उनका सम्बन्ध
(अ) त्रिविध आत्मा की अवधारणा और तनाव -
जैनदर्शन अध्यात्मवादी दर्शन है। उसमें आत्मा की विशुद्धि को प्राथमिकता दी गई है। अध्यात्म का अर्थ आत्मा की सर्वोपरिता है। आत्मा का निर्मलतम या विशुद्धतम अवस्था में होना ही अध्यात्म का लक्षण हैं और यह अवस्था ही पूर्णतः तनावमुक्ति की अवस्था है। जैनदर्शन के अनुसार आत्मिक विकास तनावमुक्ति की एक सहज प्रक्रिया है। जैसे-जैसे आत्मा के आध्यात्मिक गुणों का विकास होगा, वैसे-वैसे व्यक्ति तनाव से मुक्त होता जाएगा।
हम यह भी कह सकते हैं कि जैसे-जैसे व्यक्ति तनावमुक्त होगा वह आत्मा की विशुद्धतम अवस्था की ओर अग्रसर होता जाएगा, क्योंकि जैनदर्शन में आत्म विशुद्धि का अर्थ है -आत्मा का राग-द्वेष और तज्जन्य कषायों से मुक्त होना है। क्रोधादि कषायों से मुक्त होना ही तनावमुक्ति है। जैनदर्शन में आत्मा के आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से तीन अवस्थाएँ कही गई है' - 1. बहिरात्मा, 2. अन्तरात्मा और 3. परमात्मा।
इन तीनों अवस्थाओं के लक्षणों के द्वारा यह जाना जा सकता है कि व्यक्ति तनाव की किस अवस्था में है। इन तीनों अवस्थाओं को मनोविज्ञान की दृष्टि से क्रमशः 1. तनावयुक्त, 2. तनावमुक्ति की ओर अभिमुखता और 3. पूर्णतः तनावमुक्ति की अवस्था कह सकते हैं।
बहिरात्मा एवं तनाव -
संसार में राग-द्वेष और तज्जन्य कषायों से युक्त व्यक्ति तनावयुक्त अवस्था को प्राप्त करता है। यही बहिरात्मा रूप प्रथम अवस्था है। बहिरात्मा
'अ) मोक्खपाहुड, 4 ब) योगावतार, द्वात्रिंशिका, 17-18 स) अध्यात्ममत परीक्षा, गा. 125
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