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दोनों तनावग्रस्त रहते हैं। न केवल पति-पत्नि अपितु परिवार के सदस्यों में भी सामंजस्य नहीं होता है, और इस कारण भी सम्पूर्ण परिवार तनावग्रस्त रहता है। ____ कभी परिवार में वृद्धजन पुत्र-पुत्रवधु आदि को अपने अनुसार जीवन जीने को विवश करते हैं, इससे भी तनावग्रस्तता का जन्म होता है। समाज में समाज के प्रत्येक सदस्य को अपनी योग्यता के अनुसार कार्य और स्थान मिलना चाहिए, किन्तु व्यक्ति की अहंकार की वृत्ति और सामाजिक प्रतिष्ठा की चाह आत्मसंतुष्टि न पाकर तनावों को जन्म देती है। इस प्रकार सामाजिक जीवन में अनेक ऐसे कारण पाए जाते हैं, जो व्यक्ति को तनावग्रस्त बनाते हैं। इस संदर्भ में भारतीय-चिन्तन के अन्तर्गत गीता में यह कहा गया है कि -"व्यक्ति को कर्म करने का अधिकार है, फल प्राप्ति उसकी इच्छा के अनुसार हो यह आवश्यक नहीं है।" 46 जैनदर्शन में भी इस बात को यह कहकर समझाया गया है कि सम्यकदृष्टि जीव को अपने दायित्व व योग्यता के अनुरूप कार्य करते रहना चाहिए और फलासक्ति से दूर रहना चाहिए। कर्त्तव्यभावपूर्वक अपने दायित्व का निर्वाह करना एक ऐसा तत्त्व है जिससे व्यक्ति समाज के तनाव को दूर कर सकता है। जैनग्रंथ स्थानांगसूत्र में दस प्रकार के सामाजिक धर्मों का उल्लेख हुआ है, जैसे -ग्राम धर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म आदि। यह धर्म व्यक्ति का समाज के प्रति जो दायित्व है, उसे बताते हैं और इस प्रकार सामाजिक जीवन में समरसता उत्पन्न की जा सकती है और तनाव से बचा जा सकता है।
तनावों के धार्मिक कारण -
सामान्यतः धर्म समता एवं वीतरागभाव का सम्पोषक है, अतः उसे तनावमुक्ति का साधन माना जाता है, किन्तु धर्म के दो पक्ष होते हैं – एक सामान्य पक्ष और दूसरा उसका विकृत पक्ष होता है। जब धर्म सम्प्रदाय में आब्ध हो जाता है, तब कालक्रम में अनेक विसंगतियाँ उसमें प्रविष्ट हो जाती हैं और
46 गीता
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