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उत्पन्न नवीन इच्छाओं और आकांक्षाओं का एक वर्तुल (चक्र) खड़ा कर लेता है। यह अंतहीन चक्र चलता रहता है। जैनदर्शन में इसे अनन्तानुबंधी-कषाय-चक्र कहा गया है। अतः जहाँ तनावों को समाप्त करने की बात है, वहाँ सबसे पहले यह आवश्यक है कि व्यक्ति अपनी चंचल चित्त वृत्ति को या तो एकाग्र करे या उनका उच्छेद करे। इसका परिणाम यह होगा कि जब चित्त वृत्तियाँ साक्षीभाव में स्थित होंगी तो उनसे नवीन इच्छाओं, आकांक्षाओं या अपेक्षाओं का जन्म नहीं होगा और फलतः तनाव उत्पन्न नहीं होंगे। इसलिए यदि तनावों को समाप्त करना है, तो चित्त की चंचलता समाप्त करना होगी तब ही तनावों का जन्म भी नहीं होगा और इस प्रकार चित्तवृत्ति और तनावों के सह-सम्बन्ध का दुष्चक्र टूट जावेगा।
चित्त और तनाव : आचार्य महाप्रज्ञ की दृष्टि में -
आचार्य महाप्रज्ञजी ने भी चित्त को चंचल कहा है, किन्तु मन और चित्त को पृथक् करते हुए उनका यह मानना है कि चित्त का विक्षेप, मन का विक्षेप है। चित्त की चंचलता, मन की चंचलता है। मन का स्वभाव ही चंचलता है, जहाँ चंचलता समाप्त हो जाती है, वहाँ मन मर जाता है, अर्थात् मन 'अमन' हो जाता है, किन्तु चित्त की स्थिति भिन्न है उसको स्थिर किया जा सकता है और जब चित्त स्थिर हो जाता है, तब भी मन अमन बन जाता है।
आचार्य महाप्रज्ञजी के अनुसार चित्त के चार प्रकार हैं -
1. मिथ्यात्व-अध्यवसाय, 2. अविरत-अध्यवसाय
3. प्रमाद-अध्यवसाय
4. कषाय-अध्यवसाय
ये चार प्रकार के चित्त (अध्यवसाय) सतत सक्रिय रहते हैं।
19 चित्त और मन - आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 240
20 वही, पृ. 242
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