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कर्त्तव्यशीलता के मध्य क्या श्रेष्ठ है, इसका निर्णय नहीं कर पाता है।" 15 दो परस्पर विरोधी तत्त्वों के मध्य निर्णय नहीं कर पाने या संशयावस्थ की यह स्थिति नियमतः तनाव की ही स्थिति है, क्योंकि व्यक्ति इसी चिंता में रहता है कि - " मैं क्या करूं, क्या नहीं" और परिणामस्वरूप वह कुछ निर्णय नहीं कर
पाता ।
4. अविरत सम्यक् दृष्टि गुणस्थान
यह गुणस्थान आध्यात्मिक विकास की वह अवस्था है, जिसमें साधक को यथार्थता का बोध या सत्य का दर्शन तो हो जाता है, किन्तु फिर भी वासनाओं, रागादि कषायों से युक्त होता है, और जहाँ कषायादि है, वहाँ तनाव तो नियमतः होता ही है। इस अवस्था में संशय की स्थिति तो समाप्त हो जाती है, अर्थात् क्या अच्छा या उचित है, यह तो वह जानता तो है, पर फिर भी तनावों के हेतुओं से बच नहीं पाता ।
5. देशविरत सम्यक् - दृष्टि गुणस्थान
इस गुणस्थान में व्यक्ति की वासनाओं और कषायों में स्थायित्व नहीं होता।" वासनाओं और कषायों के आवेगों का प्रकटन तो होता है, किन्तु वह उन पर नियंत्रण करने की क्षमता रखता है अर्थात् तनावों के हेतुओं से बचने का प्रयास करता है ।
6. प्रमत्त संयत गुणस्थान
इस गुणस्थान में व्यक्ति तनाव के हेतुओं से पूरी तरह निवृत्त होकर तनावमुक्ति के लिए दृढ़तापूर्वक प्रयास करता है। इस अवस्था में व्यक्ति में तनाव का स्तर प्रथम तीन गुणस्थानों की अपेक्षा बहुत कम होता है । उदाहरण के रूप में, क्रोध के अवसर पर ऐसा साधक बाह्यरूप से तो शान्त बना रहता है,
IS जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन " जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
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डॉ. सागरमल जैन, पृ. 457
डॉ. सागरमल जैन, पृ. 461
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