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होती है। इस प्रकार व्यक्ति के चैत्तसिक स्तर पर उत्पन्न होने वाली इच्छाएं और आकांक्षाएं अनुकूल होने पर पुनः-पुनः प्राप्ति की अपेक्षा रखकर चेतना को तनावग्रस्त बनाती हैं तो प्रतिकूल परिस्थिति से वियोग कैसे हो ? इस चिंता के द्वारा वे चेतना को विक्षोभित करती रहती है। उत्तराध्ययनसूत्र में भी लिखा है कि -शब्द में मूर्च्छित जीव अनुकूल शब्द, गंध, रस, स्पर्श वाले पदार्थों की प्राप्ति, रक्षण एवं प्रतिकूल के वियोग की चिंता में लगा रहता है। वह उनके संयोगकाल में भी अतृप्त ही रहता है,50 अर्थात् तनावग्रस्त रहता है। वस्तुतः आसक्त जीव को कुछ भी सुख नहीं होता।" जैनाचार्यों ने मन और इन्द्रियों के अनुकूल विषयों की पुनः प्राप्ति की प्रवृत्ति को ही इच्छा कहा है,52 और अनुकूल की चाह व प्रतिकूल के निराकरण की इच्छा दोनों ही तनावों को जन्म देती है।
अनुकूल की पुनः-पुनः प्राप्ति कैसे हो और प्रतिकूल का वियोग कैसे हो, मूलतः चैत्तसिक तनाव का ही एक रूप है। गीता में भी कहा गया है, कि --मन से इन्द्रियों की पूर्ति में बाधक बने तत्त्वों के प्रति क्रोध उत्पन्न होता है और क्रोध की स्थिति में विवेक समाप्त हो जाता है। विवेक शक्ति के समाप्त हो जाने पर व्यक्ति विनाश को प्राप्त होता है। अतः तनाव की उत्पत्ति राग के वशीभूत होती है जो अपनी पूर्ति की प्रक्रिया में बाधक तत्त्वों के प्रति आक्रोश या द्वेष की वृत्ति को जन्म देती है। जैनदर्शन में राग व द्वेष को कर्मबीज कहा गया है, और कर्म को बंधन का रूप माना गया है। चित्त में राग-द्वेष की वृत्तियों का जन्म होने पर चित्त विश्रंखलित हो जाता है और उसके परिणामस्वरूप व्यक्ति तनावग्रस्त बना रहता है, अतः तनावों से मुक्ति के लिए मन को विकल्पों से ऊपर उठाना होगा, क्योंकि मन में ऐसे उत्पन्न विकल्प वाणी और शरीर के
9° उत्तराध्ययनसूत्र – 32/41 " उत्तराध्ययनसूत्र - 32/71 2 अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड-2, पृ. 575 ७ गीता - 2/62-63 " रागो य दोसो वि य कम्म बीज – उत्तराध्ययनसूत्र -32/7
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