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की होने के कारण तनावमुक्ति की अवस्था है। इसके विपरीत कषाय आत्मा तनाव की अवस्था है। जब मन, वचन और काया की प्रवृत्ति बाह्य तत्त्वों से जुड़ती है तो योगात्मा की अवस्था भी तनाव की ही अवस्था है, किन्तु जब योग (मन, वचन व काय) की प्रवृत्ति अन्तरात्मा से जुड़ती है, तो वह तनावमुक्ति की अवस्था होती है। यद्यपि यदि आत्मा विभाव दशा को प्राप्त होती है तो मिथ्या-ज्ञान, मिथ्या-दर्शन, मिथ्या-चारित्र से युक्त होने पर उसे तनावग्रस्त मान सकते हैं। आत्म पुरुषार्थ या क्रियात्मक शक्ति का मिथ्यात्व की दिशा में क्रियाशील होने पर उसे हम तनावयुक्त मान सकते हैं। तनाव आत्मा की पर्याय दशा है, इसलिए द्रव्य आत्मा अपने तात्त्विक स्वरूप में पर्याय से अप्रभावित होने की दशा में तनावमुक्त माना जा सकता है, किन्तु जहाँ तक उपयोग आत्मा का प्रश्न है, यदि वह अपने उपयोग का प्रयोग ज्ञाता-द्रष्टाभाव को छोड़कर _कर्ता-भोक्ताभाव में करता है, तो वह विभाव दशा को प्राप्त हो जाता है और ऐसी स्थिति में उसकी दशा तनावयुक्त दशा होगी, क्योंकि “अज्ञानी आत्मा ही . कर्मों का कर्ता होता है।" "आत्मा जब विभाव दशा में होती है तो कर्मों का - संचय करता है, वे कर्म ही विपाक दशा में बहुत दुःखदायी (तनाव उत्पन्न करने वाले) होते हैं। आत्मा का ज्ञाता-द्रष्टाभाव में नहीं होना, यही तनाव का हेतु है, किन्तु यदि वह ज्ञाता-द्रष्टाभाव में रहता है तो वह तनावमुक्त है। इसी प्रकार योग-आत्मा मन, वचन और काय की प्रवृत्ति का कारण है। यह प्रवृत्ति सद् और असद् दोनों रूप हो सकती है। यदि असद् प्रवृत्ति है तो वह निश्चय ही तनावग्रस्त होगा। सद् प्रवृत्ति में इच्छा और आकांक्षा रह सकती है, वहाँ चाहे तीव्र तनाव न हो, किन्तु वह तनावमुक्त अवस्था भी नहीं मानी जा सकती। जब तक मन, वचन, काया की प्रवृत्ति है, तब तक शुभाशुभ भाव होते हैं और जब तक शुभाशुभ भाव हैं, तब तक इच्छाएँ और आकांक्षाएँ भी हो सकती है और उस स्थिति में व्यक्ति तनाव से युक्त भी हो सकता है। इससे भिन्न जब योग में भी
'समयसार – 12, अण्णाणमओ जीवो कम्माणं कारगो होदि। 'उत्तराध्ययनसूत्र, 32/46
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