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आना संभव नहीं हो पाता। जैन आचार्य नेमिचन्द्र ने वित्त (धन) के परिणामों की चर्चा करते हुए एक गाथा उद्धृत की है -
मोहाययणं मयकामवद्धणो जणियचित्तसंतावो
आरंभकलह हेऊ, दुक्खाण परिग्गहो मूलं । अर्थ - परिग्रह मोह का आयतन है। यह अहंकार और वासना को बढ़ाने वाला एवं चित्त में संताप पैदा करने वाला है, साथ ही हिंसा और कलह का हेतु तथा दुःखों का मूल कारण है।
यह ठीक है कि धन से भौतिक सुख मिलते हैं, किन्तु जैन आगमों में कहा गया है - खणमित्त सोक्खा बहुकाल दुक्खा - भौतिक सुख क्षणिक होता है तथा परिणाम में बहुत काल तक दुःख देने वाला होता है।
दुःख, अशांति, भय, कलह आदि तनावों से बचने के लिए जीवन का आधार भौतिकता को नहीं मानते हुए आध्यात्मिकता मानने की आवश्यकता है। धन से क्षणभर के लिए भौतिक सुख तो मिल जाएगा, किन्तु जीवन में शांति का अनुभव कभी नहीं हो सकेगा।
उपर्युक्त विवेचन से यह तो सिद्ध हो जाता है कि अर्थ तनाव का हेतु है। किन्तु एक प्रश्न सामने आता है कि धन के अभाव में जीवन निर्वाह कैसे करें ? जीवन जीने के लिए व्यक्ति को रोटी, कपड़ा, मकान चिकित्सा आदि मूलभूत वस्तुओं की आवश्यकता होती है, जिनके अभाव में भी व्यक्ति दुःखी या तनावग्रस्त होता है और ये वस्तुएं बिना धन के नहीं मिल सकती हैं। अतः व्यक्ति को अपने जीवन- निर्वाह के लिए धन का अर्जन करना पड़ता है। परिस्थितियां बदलती रहती हैं, इसलिए वह भविष्य में जीवन निर्वाह एवं रोगादि की स्थिति में चिकित्सा के लिए धन का संचय करता है और इसी कारण वश उसका संरक्षण भी करना पड़ता है। वस्तुतः तो धन का अर्जन, संचय, संरक्षण
'उद्धृत - सुखबोधा, पत्र-83 10 महावीर का अर्थशास्त्र, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 17
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