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ये तीनों ही व्यक्ति को तनावग्रस्त बनाते हैं। अतः जैनदर्शन में सर्वप्रथम यह । प्रतिपादित किया गया है कि श्रमिकों को उनके श्रम का पूरा पारिश्रमिक दिया जाना चाहिए ताकि वे अपना जीवनयापन सम्यक् प्रकार से कर सकें। आचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रंथ ‘पंचाशकप्रकरण' में जिनभवन निर्माण विधि में यह बताया है कि श्रमिकों को उनके श्रम के प्रतिदान के रूप में पूरा पारिश्रमिक दिया जाना चाहिए, ताकि वे अभाव में जीवन न जीएं।" यदि श्रमिकों को अपने श्रम का यथोचित प्रतिदान उपलब्ध होता है तो वे संतोषपूर्वक अपना सामान्य जीवन बिताते हैं और उनके मन में धनी वर्ग के प्रति विद्वेष की भावना भी जन्म नहीं लेती है। जैनदर्शन का यह प्रमुख सिद्धांत है कि व्यक्ति को पारस्परिक हित का ध्यान रखते हुए जीवन जीना चाहिए। तत्त्वार्थसूत्र के पाँचवे अध्याय में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि –परस्परोपग्रहजीवानामः अर्थात् जीवों को एक दूसरे का सहयोग करते हुए जीवन जीना चाहिए। जैनदर्शन यह मानता है कि सम्यक् जीवन जीने के लिए परस्पर सद्भाव की वृत्ति होना चाहिए। जहाँ पारस्परिक सहयोग की वृत्ति होती है, वहां शोषण की वृत्ति नहीं होती है और इसके परिणाम स्वरूप सामाजिक जीवन में पारस्परिक विद्वेष व घृणा भी जन्म नहीं लेती है। अतः यदि समाज में तनावमुक्त जीवन जीना है तो पारस्परिक सहयोग की वृत्ति से ही जीवन जीना होगा। समाज व्यवस्था का आधार शोषण नहीं, सहयोग की भावना है। साथ ही जैन आचार्यों ने परिग्रह परिमाण व्रत व भोगोपभोग परिमाण व्रत की व्यवस्था देकर यह बताया है कि जब व्यक्ति में संग्रह बुद्धि नहीं होती है और भोगों-उपभोगों की आकांक्षाएं भी मर्यादित होती है, तो उसका जीवन शांत और सामंजस्यपूर्ण होता है। इसी हेतु भारतीय दर्शन में 'सादा जीवन और उच्च विचार' का सूत्र प्रस्तुत किया गया है। इस सूत्र के आधार पर अगर जीवन जीया जाए तो पारस्परिक ईर्ष्या व विद्वेष की भावना भी जन्म नहीं लेगी। यदि व्यक्ति अपनी आर्थिक सामर्थ्य के अनुरूप अपने व्यय को
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