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स्वार्थ की साधना ही मुख्य लक्ष्य रहता है। किन्तु व्यवहार नय की अपेक्षा से क्रोध, मान व माया तीनों को द्वेष रूप माना गया है, क्योंकि माया भी दूसरों के अहित का विचार ही है। केवल अकेला लोभ रागात्मक है, क्योंकि उसमें ममत्व भाव है। अध्यात्मसार के ममत्व त्याग अधिकार में भी ममता का कारण लोभ बताया है। इसके विपरीत ऋजुसूत्रनय का कथन यह है कि केवल क्रोध ही द्वेष रूप होता है, शेष मान भाया और लोभ एकान्तः न तो राग रूप कहे जा सकते हैं, न द्वेष रूप कहे जा सकते हैं। रागात्मकता से प्रेरित होने पर वे राग रूप होते हैं और द्वेषात्मकता से प्रेरित होने पर वे द्वेष युक्त हो जाते हैं।" डॉ. सागरमल जैन के शब्दों में चारों कषाये राग एवं द्वेष –दोनों पक्षों को अपने में समाहित करके चलती है। . 90 वासना का तत्त्व अपनी तीव्रता की सकारात्मक अवस्था में राग रूप होता है, वही निषेधात्मक अवस्था में द्वेष रूप हो जाता है। राग-द्वेष सहजीवी हैं। यदि राग व्यापक होकर सर्वहित की भावना में बदल जाए, तो वह आवेगात्मक नहीं रह जाता है, वह चित्तवृत्ति के समत्व का आधार बन जाता है। इसी प्रकार द्वेष भी अपनी पूर्णता में जब सभी के प्रति निर्ममत्व की स्थिति में होता है, तो वह भी हमारी चेतना को विक्षोभित नहीं करता है। वस्तुतः सर्वहिताय की वृत्ति और पूर्णतः निर्ममत्व की बुद्धि ऐसी है जो तनाव को जन्म नहीं देती है। राग और द्वेष जब भी किसी विशेष व्यक्ति या वस्तु पर आधारित होते हैं, तो वे तनाव को जन्म देते हैं। क्योंकि उनसे हमारे चित्त का समत्व भंग होता है। हमारे दुःख का मूल कारण भी राग-द्वेष ही है, जो कषाय रूप है। प्रशमरतिप्रकरण में सभी दुःखों का कारण राग-द्वेष बताया है और राग-द्वेष को ही कषाय कहा गया है। जो जीव राग-द्वेष के अधीन होते हैं, वे क्रोधी मानी, मायावी और लोभी कहे जाते है। इसके विपरीत यह भी सत्य है कि जब राग अधिक व्याप्त होकर सर्व के हित की भावना बन जाता है और द्वेष
89 अध्यात्मसार - 18 अधिकार, ममत्व त्याग: गाथा - 217 9 जैन बोद्ध गीता के आचार दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन - पृ. "प्रशमरतिप्रकरण - 23
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