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पत्नि है, ये मेरे स्वजन हैं; इन्होंने मेरे लिए भोजन, वस्त्र, मकान आदि की व्यवस्था की है, अतः मैं भी इनके लिए यह करूँगा। इस प्रकार विषयों में आसक्त व्यक्ति प्रमादी बनकर दिन-रात बिना विचार किए दुष्कर्म करता है।"59
वस्तुतः 'पर' पर स्व का मिथ्या आरोपण या ममत्वबुद्धि ही उसके काषायिक चित्तवृत्तियों के उत्पन्न होने का कारण होती है और यही राग-द्वेष या क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायवृत्तियों को जन्म देती है और तद्जन्य दुःख का कारण होती है।
यद्यपि राग एवं द्वेष में भी तनाव-युक्त अवस्था का मूल कारण तो राग को ही बताया गया है। जब किसी व्यक्ति या वस्तु पर राग होता है तो उसके विरोधी या बाधक के प्रति द्वेष होता है। इस प्रकार राग-द्वेष से व्यक्ति में कषाय भावना उत्पन्न होती है। व्यक्ति हमेशा इन्द्रियों के विषयों के प्रति आसक्त रहता है। आसक्तिवश उनकी पूर्ति करने में अगर कोई बाधा आती है, तो उसके अंदर एक रोष उत्पन्न हो जाता है। रोष ही क्रोध का समानार्थक शब्द है। क्रोध में व्यक्ति विवेकशून्य होता है। उसे सही-गलत की पहचान नहीं होती और अपनी इच्छित वस्तु को प्राप्त करने हेतु अलग-अलग ढंग से मायाचार करता है अर्थात् छल-कपट की भावना से माया जाल बुनता है, क्रोध करता है और क्रोध हिंसा को जन्म देता है। हिसंक व्यक्ति तनाव ग्रस्त रहता है। पुनः मान या अहंकार के पोषण हेतु छल-कपट करता है। आचारांग में लिखा है कि राग-द्वेष से युक्त प्रमादी जीव छल-कपट करता हुआ पुनः-पुनः गर्भ में आता है। 60 दूसरी ओर 'पर' पदार्थो पर 'मेरेपन' का आरोपण कर अभिमान भी करता है। आचारांग में मान को पतन, दुःख अर्थात् तनाव का कारण बताया है -
59 "जे गुणे से मूलठाणे, जे मूल ठाणे से गुणे इति से गुणट्ठी महया परियावेणं पुणो-पुणो वसे पमत्ते त्तं जहाँ – माया मे, पिया मे, भज्जा मे, पुत्ता मे, धुआ मे, राहुसा मे, सहिसयणसंगंयसंधुआ मे विवित्तुवगरणपरिवट्टण भोयणच्छायण मे। इच्चत्यं गडिए लोय वसे पमत्ते अहो य राओय परितप्पमाणे कालाकालसमट्ठाई संजोगट्ठी, अट्ठालोय आलम्पे सहसाकारे विणिविरठचित्ते,
आचारांग - 2/1/63 60 आचारांग - 3/1/110
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