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गाथा ६
उत्तर-जो अभिप्राय अखण्ड निरपेक्ष त्रैकालिक शुद्धस्वभावको जाने उसे शुद्धनय कहते है।
प्रश्न १३-शुद्ध दर्शनका क्या तात्पर्य है ?
उत्तर- शुद्ध दर्शन महज दर्शनगुण याने दर्शनसामान्य है,जो क्रमश. अनेक दर्शनोपयोग पर्यायरूप परिणम करके भी किसी दर्शनोपयोगरूप नही रहता कोई न कोई कामयागरण
प्रश्न १४- शुद्ध ज्ञानका क्या तात्पर्य है ? * *छता
उत्तर-शुद्ध ज्ञान ज्ञानसामान्य अर्थात् सहज ज्ञानगुणको कहते है । यह शुद्ध ज्ञान क्रमशः अनेक ज्ञानोपयोगरूप परिणम करके भी किसी ज्ञानोपयोगुरूप नहो रहता दूर 453 . प्रश्न १५-- यह शुद्ध ज्ञान, शुद्ध दर्शन शुद्धनयसे क्यो जीवका लक्षण है ? - -
उत्तर-- शुद्धनय पर्यायकी अपेक्षा न करके बनता है और यह शुद्ध दर्शन और ज्ञान ना पर्यायकी अपेक्षा न करके प्रतिभास होता है, अतः शुद्ध दर्शन व शुद्ध ज्ञान जीवके लक्षण शुद्धनयसे कहे गये है।
प्रश्न १६-- उक्त चार नयोसे कहे गये लक्षणोमे किस नयसे देखे गये जीवके लक्षण की दृष्टि उपादेय है ?
__ उत्तर-- उक्त चार प्रकार लक्षणोमे से शुद्धनयसे ज्ञात हुये जीवके लक्षणकी दृष्टि उपादेय है।
प्रश्न १७-- द्धनयसे 'जीवके लक्षणकी दृष्टि क्यो उपादेय है ?
उत्तर - शुद्ध ज्ञान व दर्शन सहज शुद्ध, निर्विकार, अनाकुलस्वभाव, ध्रवपारिणामिका है । यह उपादयभूत शाश्वत सहजानन्दमय अक्षय सुखका उपादान कारण है । शुद्धकी। दृष्टिसे शुद्ध पर्याय प्रकट होती है, निर्विकारकी दृष्टिसे निर्विकार पर्याय प्रकट होती है, ध्र वकी दृष्टिसे ध्र व पर्याय प्रकट होती है । अत सहज शुद्ध निर्विकार ध्र व शुद्ध ज्ञान दर्शनकी दृष्टि उपादेय है।
प्रश्न १८-- शुद्ध ज्ञान व दर्शनकी दृष्टि भी तो एक पर्याय है, फिर यह दृष्टि क्यो उपादेय हे?
उत्तर-शुद्ध ज्ञान दर्शनको दृष्टि भी पर्याय है, इसलिये इस दृष्टिकी दृष्टि नहीं करना चाहिये, किन्तु शुद्ध ज्ञानदर्शन परमपारिणामिक भाव है, अतः शुद्ध ज्ञानदर्शन प्रर्थात् शुद्ध ज्ञ चैतन्यका अवलम्बन करना चाहिये, यही "शुद्धज्ञान दर्शनको दृष्टि उपादेय है" इसका तात्पर्य में
__इस प्रकार "जीव उपयोगमय है" इस अर्थके व्याख्यानका अधिकार समाप्त करके जीव अमूर्त है, इसका वर्णन करते है ।