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गाथा ४३
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- प्रश्न १६-- ज्ञानको तो सविकल्प ही बताया गया है, ज्ञान निर्विकल्प कैसे हो सकता
है ?
उत्तर - ज्ञान अर्थाकारको जाननरूप ग्रहण करता है, प्रत सविकल्प है, किन्तु इस लक्षरण के अनुसार निश्चयज्ञानके भी स्वसवेदनरूप आकारका ग्रहण होनेसे सविकल्प होनेपर भी बाह्य अर्थविषयक विकल्प न होनेसे अथवा उनका प्रतिभासमात्र होनेके हेतु मुख्यपना न होने से निर्विकल्पना माना गया है।
इस प्रकार ज्ञानके वर्णन के पश्चात् अब दर्शनका वर्णन किया जाता है
ज सामण्ण गहण भावारणं व कट्टु श्रायार । 1.
प्रविसे सिदूर अट्ठे दसरणमिदि भण्णये समये ॥४३॥ |
अन्वय- अट्ठे अविसेसिदूरा प्रायार व कट्टु जं भावारण सामण्णं गहण त दस् इदि समये भये ।
अर्थ- पदार्थों को भेदरूप न करके और उनके श्राकार आदि विकल्पोको न करके जो पदार्थोंका सामान्य ग्रहरण है वह दर्शन है, ऐसा सिद्धान्तोमे कहा गया है ।
प्रश्न १ - पदार्थोके सामान्य ग्रहरणका क्या अर्थ है ? -
उत्तर — पदार्थोंके सामान्यग्रहणका तर्क दृष्टिसे तो यह अभिप्राय है कि पदार्थोंकी सामान्यसत्ताका अवलोकन दर्शन है । इसमे किसी भी प्रकारका विकल्प, विचार व विशेषका ज्ञान नही है, और सिद्धान्तदृष्टि से दर्शन का यह अभिप्राय है कि अन्तर्मुख चैतन्यमात्रका जो प्रकाश है श्रथवा श्रात्मावलोकन है वह दर्शन है ।
प्रश्न २ – इन दोनो लक्षणोमे तो परस्पर विरोध हो गया ?
उत्तर- इन दोनो लक्षणोमे परस्पर विरोध नही है, क्योकि दोनोमे विषय आत्मा ही होता है ।
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प्रश्न ३ - पदार्थोकी सामान्यसत्ता आत्मविषय कैसे बन सकती है ?
उत्तर - सर्व पदार्थोंमे तो सामान्य अस्तित्व गुण है वह तो महासत्तारूप है । उस सामान्य सत्ता के प्रतिभासमे कोई नियत पदार्थ सामान्यसत्तासे विशेषित नही होता है । अन्यथा वह आवान्तरसत्ता कहलावेगी, सामान्यसत्ता नही । इसलिये सामान्यसत्तामे कोई पदार्थ विषयभूत नही होता, किन्तु सामान्यसत्ताका प्रतिभास करने वाला है आत्मा, और आत्मा वास्तवमे अपनेको हो देवता जानता है, सो सामान्यसत्ताका प्रतिभास करने वाला स्वयं ह विपय होता ही है । इस प्रकार पदार्थो की सामान्यसत्ताके अवलोकनमे आत्मा ही विषय होता है ।
प्रश्न ४ – पदार्थो की सामान्यसत्ताका ग्रहरण, यह अर्थ गाथामे कैसे निकला ?
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