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गाया ५५ ।
प्रश्न २- साधु जिस किसीका किसका चिन्तवन करता है ?
उत्तर-- प्रात्मा या अनात्मभूत कोई पदार्थ भी साधुके चिन्तवनमे आ जाय, कोई हानि नही होती है, क्योकि ज्ञानका स्वभाव जानना है । उसमे कुछ भी ज्ञान जाननेमे आ जाय व एकाग्रचित्ततासे भी जाननेमे पा जाय यह ज्ञान प्रात्माका बाधक नही है । बाधक तो विपरीत अभिप्राय है।
प्रश्न ३- प्रायमिक शिष्योके ध्यानमे अधिकतया क्या ध्येय आता है ?
उत्तर-- पाथमिक साधकोके प्रायः सविकल्प अवस्था रहती है वहाँ विकल्प बहुलता की निवृत्तिके लिये चित्तको स्थिरता आवश्यक है, एतदर्थ, देव, शास्त्र, गुरु आदि धर्मान्वित परद्रव्य ध्येय रहते है।
प्रश्न ४- अभ्यस्त साधुवोके ध्यान में क्या ध्येय प्राता है ?
उत्तर- अभ्यस्त साधुवोके, निश्चलचित्तोके ध्यानमे सहज शुद्ध, नित्य, निरञ्जन निज शुद्धस्वभाव ध्येयरूप होता है ।
प्रश्न ५-ध्यानका सकेत किस पदसे हो रहा है ?
उत्तर- “साहू गिरोहवित्ती हवे" जो सावु निस्पृह वृत्ति वाला हो जाता है इस पदसे ध्याताका सकेत हो रहा है । सकल ध्याता वहो होता है जो सर्वप्रकारकी इच्छाप्रोसे अत्यन्त परे है।
प्रश्न ६-यहाँ इच्छामे क्या-क्या बाते गर्भित है ?
उत्तर-इच्छामे सभी प्रकारके परिग्रह गभित हो जाते है । वे परिग्रह १४ है-- (१) मिथ्यात्व, (२) क्रोध, (३) मान, (४) माया, (५) लोभ, (६) हास्य, (७) रति, (८) अरति, (६) शोक, (१०) भय, (११) जुगुप्सा, (१२) पुरुषवेद, (१३) स्त्रोवेद और (१४) नपु सकवेद।
प्रश्न ७- इन्ही आभ्यन्तर परिग्रहोसे रहित होनेकी आवश्यकता है तो वाहपरिग्रह होते हुये ध्यान होना मानना चाहिये ?
उत्तर-मिश्यात्वका अभाव होनेपर वह अन्य आभ्यन्तर परिग्रहकी शिथिलता होने पर बाह्यपरिग्रहका ग्रहण ही नही रह सकता और बाह्यपरिग्रहका ग्रहण न रहने पर आभ्यनर परिग्रहका भी सर्वथा अभाव हो जाता है । इस प्रकार आभ्यन्तर व बाह्य दोनो प्रकारके सब परिग्रहोका त्यागी उत्तम ध्याता होता है।
प्रश्न -ध्यानका सकेत किस पद द्वारा हो रहा है ?
उत्तर- "एयत्त लद्धणय" इस पदसे ध्यानका सकेत होता है । एकत्वको प्राप्त करना ध्यानका लक्ष्य है । इसमें भी चित्तको एकायता पाने रूप एकत्वको प्राप्ति ध्यानका प्राथमिक लक्षण है और निज शुद्ध आत्मतत्त्वके एक्त्वको पाने रूप एकत्वको प्राप्ति उत्तम ध्यानका