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________________ २७७ गाया ५५ । प्रश्न २- साधु जिस किसीका किसका चिन्तवन करता है ? उत्तर-- प्रात्मा या अनात्मभूत कोई पदार्थ भी साधुके चिन्तवनमे आ जाय, कोई हानि नही होती है, क्योकि ज्ञानका स्वभाव जानना है । उसमे कुछ भी ज्ञान जाननेमे आ जाय व एकाग्रचित्ततासे भी जाननेमे पा जाय यह ज्ञान प्रात्माका बाधक नही है । बाधक तो विपरीत अभिप्राय है। प्रश्न ३- प्रायमिक शिष्योके ध्यानमे अधिकतया क्या ध्येय आता है ? उत्तर-- पाथमिक साधकोके प्रायः सविकल्प अवस्था रहती है वहाँ विकल्प बहुलता की निवृत्तिके लिये चित्तको स्थिरता आवश्यक है, एतदर्थ, देव, शास्त्र, गुरु आदि धर्मान्वित परद्रव्य ध्येय रहते है। प्रश्न ४- अभ्यस्त साधुवोके ध्यान में क्या ध्येय प्राता है ? उत्तर- अभ्यस्त साधुवोके, निश्चलचित्तोके ध्यानमे सहज शुद्ध, नित्य, निरञ्जन निज शुद्धस्वभाव ध्येयरूप होता है । प्रश्न ५-ध्यानका सकेत किस पदसे हो रहा है ? उत्तर- “साहू गिरोहवित्ती हवे" जो सावु निस्पृह वृत्ति वाला हो जाता है इस पदसे ध्याताका सकेत हो रहा है । सकल ध्याता वहो होता है जो सर्वप्रकारकी इच्छाप्रोसे अत्यन्त परे है। प्रश्न ६-यहाँ इच्छामे क्या-क्या बाते गर्भित है ? उत्तर-इच्छामे सभी प्रकारके परिग्रह गभित हो जाते है । वे परिग्रह १४ है-- (१) मिथ्यात्व, (२) क्रोध, (३) मान, (४) माया, (५) लोभ, (६) हास्य, (७) रति, (८) अरति, (६) शोक, (१०) भय, (११) जुगुप्सा, (१२) पुरुषवेद, (१३) स्त्रोवेद और (१४) नपु सकवेद। प्रश्न ७- इन्ही आभ्यन्तर परिग्रहोसे रहित होनेकी आवश्यकता है तो वाहपरिग्रह होते हुये ध्यान होना मानना चाहिये ? उत्तर-मिश्यात्वका अभाव होनेपर वह अन्य आभ्यन्तर परिग्रहकी शिथिलता होने पर बाह्यपरिग्रहका ग्रहण ही नही रह सकता और बाह्यपरिग्रहका ग्रहण न रहने पर आभ्यनर परिग्रहका भी सर्वथा अभाव हो जाता है । इस प्रकार आभ्यन्तर व बाह्य दोनो प्रकारके सब परिग्रहोका त्यागी उत्तम ध्याता होता है। प्रश्न -ध्यानका सकेत किस पद द्वारा हो रहा है ? उत्तर- "एयत्त लद्धणय" इस पदसे ध्यानका सकेत होता है । एकत्वको प्राप्त करना ध्यानका लक्ष्य है । इसमें भी चित्तको एकायता पाने रूप एकत्वको प्राप्ति ध्यानका प्राथमिक लक्षण है और निज शुद्ध आत्मतत्त्वके एक्त्वको पाने रूप एकत्वको प्राप्ति उत्तम ध्यानका
SR No.010794
Book TitleDravyasangraha ki Prashnottari Tika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1976
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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