Book Title: Dravyasangraha ki Prashnottari Tika
Author(s): Sahajanand Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala

View full book text
Previous | Next

Page 283
________________ गाथा ५४. २७५ उत्तर- सम्यक्चारित्रकी भी उत्पत्ति सम्यग्दर्शनकी तरह चौथे, ५वें, ७वे गुणस्थानने हो जाती है, परन्तु सम्यक्चारित्रकी पूर्णता १४वें गुणस्थानके अन्तमे होती है । - प्रश्न ७-कषायोका अभाव तो १०वें गुणस्थानके अन्तमे हो जाता है, फिर इसके ही अनन्तर पूर्ण सम्यक्चारित्र क्यो नही हो जाता ? उत्तर-कषायोके अभावसे होने वाली निर्मलताकी अपेक्षासे तो सभ्यक्चारित्रकी पूर्णता ११वें से मानी गई है, परन्तु ११वें गुणस्थानमे तो औपशमिक चारित्र है उसका विनाश हो जाता है । १२ वे गुणस्थानमे अनन्तज्ञान नहीं है जिससे अनन्तचारित्रका अनुभव नही है, १३वे गुणस्थानमे योगकी चचलता है, सो निर्मलता और अनुभवकी अपेक्षा पूर्णता होनेपर प्रादेशिक स्थिरता नही है । १४वें गुणग्थानमे कर्म नोकर्मसे सयुक्त होनेसे सर्वथा यथावस्था नहीं है, अत सम्यक्चारित्रको पूर्णता १४वें गुणस्थानके अन्तमे होती है । प्रश्न - साधु शब्दका क्या अर्थ है ? उत्तर-स्व शुद्धात्मान साधयति इति साधु, जो निज शुद्ध आत्माको साधे उसे साधु कहते है। प्रश्न - साधु परिणतियोकी जातिकी अपेक्षासे कितने प्रकारके होते है ? उत्तर-साधु १० प्रकारके होते है-- (१) प्रमत्तविरत, (२) अप्रमत्तविरत, (३) अपूर्वकरण उपशमक, (४) अनिवृत्तिकरणउपशमक, (५) सूक्ष्मसाम्परायउपशमक, (६) उपशान्तमोह, (७) अपूर्वकरणक्षपक, (८) अनिवृत्तिकरणक्षपक, (६) सूक्ष्मसाम्परायक्षपक, (१०) क्षीणमोह । प्रश्न १०- उक्त साधुवोमे परिणामविशुद्ध वालोका अल्पबहुत्व किस प्रकार है ? ___ उत्तर-पूर्व पूर्वसे उत्तर उत्तर नम्बर वाले साधु अधिक अधिक विशुद्ध परिणति वाले होते है। प्रश्न ११–साधु परमेष्ठीके ध्यानसे क्या प्रेरणा मिलती है ? उत्तर-साधुवोके गुगा विकास व गुणविकासके मार्गके ध्यानसे व्यवहार मोक्षमार्ग एव निश्चयमोक्षमार्गमे चलनेकी प्रेरणा मिलती है। प्रश्न १२–साधु परमेष्ठी क्या केवल पदस्थध्यानमे ही ध्येयभूत होते है ? उत्तर- माधु परमेष्ठी पिण्डस्थ. ध्यानमे भी ध्यान किये जाते है । यह पदस्थ ध्यान पिण्डस्थ ध्यानका कारणभूत है । प्रश्न १३–पदस्थ ध्यानका क्या स्वरूप है ? उत्तर- पदके उच्चारण व जपके अवलम्बनसे जो चित्तको. एकाग्रता होती है वह पदस्थ ध्यान कहलाता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297