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लक्षण है ।
द्रव्यसंग्रह प्रश्नोत्तरी टीका
प्रश्न ६ - यहाँ निश्चयध्यानसे तात्पर्य किस निश्चयध्यानका है ?
उत्तर- इस गाथामे व्यवहाररत्नत्रय के साधक चित्तकी एकाग्रतारूप ध्यानको निश्चयध्यान कहा गया है ।
प्रश्न १० - इस निश्चयध्यानके फलमे क्या होता है ?
उत्तर- इस निश्चयध्यानके प्रतापसे निज शुद्ध श्रात्मतत्त्वके एकत्वकी प्राप्ति रूप परमध्यान होता है ।
अब इसी परमध्यानका उपाय व स्वरूप कहते है ।
मा चिट्ठह मा जपह मा चितह किंवि जेरण होई यिरो |
अप्पा अप्पम्हि रम्रो इणमेव पर हवे कारण || ५६ ||
अन्वय- किवि मा चिट्टह, मा जपत, मा चितह जेण अप्पा अप्पम्हि रम्रो थिरो होदि, इमेव पर भारण हवे |
अर्थ- कुछ भी चेष्टा मत करो, कुछ भी मत बोलो और कुछ भी मत विचारो, जिससे श्रात्मा श्रात्मामे रत होता हुप्रा स्थिर हो जाय, यही परमध्यान है ।
प्रश्न १ - चेष्टा करने, बोलने व सोचनेके निषेधके इस क्रमका कोई प्रयोजन है ? उत्तर- काय, वचन, मनका निरोध क्रमसे होना सुगम होता है, इसके प्रदर्शित करने का प्रयोजन यह क्रम बनाता है ।
प्रश्न २-- किस प्रकारकी कायचेष्टाका विरोध करना चाहिये ?
उत्तर- शुभ तथा अशुभ सभी प्रकारकी शरीरकी चेष्टाका निरोध करना चाहिये ।
प्रश्न ३-- शुभ कायचेष्टाका निरोध क्यो आवश्यक है ?
उत्तर- अशुभ चेष्टाकी तरह शुभ चेष्टा भी सहज शुद्ध नित्य निष्क्रिय निज शुद्धात्मा के अनुभवमे बाधक है, अत शुभ अशुभ दोनो काय व्यापारोका निरोध परमसमाधिरूप ध्यान के लिये आवश्यक है ।
प्रश्न ४-- कौनसे वचनव्यापार हटाना परमध्यानके लिये आवश्यक है ?
उत्तर - शुभबहिर्जल्प, अशुभबहिर्जल्प, शुभअन्तर्जल्प, अशुभअन्तर्जल्प-- ये चारो ही प्रकारके वचनव्यापार रोक देना परमध्यानके लिये आवश्यक है |
प्रश्न ५-- शुभ वचनोका व अन्तर्जल्परूप वचनोका रोकना परमध्यानके लिये क्यो
?
उत्तर-- अशुभ वचनव्यापारकी तरह शुभवचनव्यापार भो निश्चल निस्तरग चैतन्य - स्वभाव के अनुभवका प्रतिबन्धक है और इसी प्रकार बहिर्जल्पकी तरह अन्तर्जल्प भी स्वभावा
आवश्यक