Book Title: Dravyasangraha ki Prashnottari Tika
Author(s): Sahajanand Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala

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Page 275
________________ गाथा ५१ उत्तर-कार्माणवर्गणावीका इस कर्मम्प अवस्थामे चिगकर अकर्मत्व अवस्थामे ग्रा जानेका नाम कर्मका नाण है । प्रागे निष्कर्मता होनेके वाद 'कर्मको उत्पत्ति ही न होना भी यहाँ मुख्य रूपमे कर्मका नाश समझना चाहिये । प्रश्न २-देहके किस रूप परिणमन हो जानेका नाम देहका नाश है ? उतर- यहाँ उस देहके छोटनेके बाद अन्य कोई देहका सम्बन्धी ही न होने व सदाके लिये देहका गम्बन्ध न हो मवनेका नाम देहवा नाश कहलाता है । वैसे तो उस देहना भी छोटे-छोटे मूट म स्नन्ध हो-होकर कपूरकी तरह विश्वरना ही हो जाता है । केवल नम्व और कोण जिनके कि साथ यात्मप्रदेशोका संयोग न था, पहे रह जाते है । इन नख केशोको इन्द्रादि देव क्षीरमागरमे मिग देते हैं। प्रग्न ३-नव और केश ढाई द्वीपमे बाहर कमे चले जाते है ? उत्तर- वे नम्व और केश प्रात्माके सम्बन्धसे अलग रहने से मनुष्यके अङ्ग नहीं कहे जाते है, प्रत उनके ढाई द्वीपमे बाहर ले जाये जानेमे कोई विरोध नही पाता। प्रश्न ४-कर्म और नोकर्मके विनाशका साधन क्या है ? उत्तर---सर्व विशुद्ध ज्ञानानुभव नर्म और नोकर्मके विनाशवा उपाय है । प्रश्न ५- यह ज्ञानानुभव कैसे उदित होता है ? उनर-इस ज्ञानानुभवमे कुछ भी द्रुत प्रतिभामित नहीं रहता, इसका विषय निरपेक्ष चैतन्यरबभाव है, यह निर्दोष निर्विकल्प अनुपम सहन आनन्दको प्रकट करता हुआ उदित होता है। प्रश्न ६- महज ग्रानन्दके अविनाभावी इम ज्ञानानुभवका महा उपाय क्या है? उनर-सर्व विद अर्थात् अन्य समस्त पदामि भिन्न नया प्रोपाविक भावोन भिन्न बाबाने निज शुद्ध प्रारमतत्स्यकी भावनासे यह ज्ञानानुभव और सहन आनन्द प्रफट होता

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