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गाथा ५२
उत्तर - जीवका ऊर्ध्वगमन स्वभाव है, सो जब ग्रात्मा के कर्मबधका विनाश हो जाता है तथा सर्वथा प्रसग, निर्लेप हो जाते है तब एक ही समयमे ऋजुगतिसे लोकके अन्त तक जहाँ तक धर्मद्रव्य है, पहुचकर रुक जाते है, प्रत सिद्धपरमेष्ठियों का आवास लोकके शिवरपर ही है ।
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प्रश्न १३ – सिद्धपरमेष्ठीका ध्यान केवल पदस्थ ध्यानमे ही होता है ? उत्तर - सिद्धपरमेष्ठीका पदस्थ ध्यान मे रहकर चिन्तवन करना प्रारम्भिक ध्यान है, इसके पश्चात् रूपातीत ध्यानमे रहकर सिद्धपरमेष्ठीका विशद ध्यान होता है । प्रश्न- १४- रूपातीत ध्यान कब प्रोर कैसे होता है ?
उत्तर
र - जब पांचो इन्द्रिय और मनके भोगोके विकल्प दूर हो जाते है तब मात्र चैतन्य विशुद्ध विकासका चिन्तवन करनेपर रूपातीत ध्यान
होता है ।
प्रश्न १५-- रूपातीत ध्यानका धीर पदस्थ ध्यानका क्या परस्पर कुछ सम्बन्ध है ? richt. उत्तर – ये दोनो ध्यान एक कालमे नही होते, अतः निश्चयसे तो कोई सम्बन्ध नही है, परन्तु कार्यकारण सम्बन्ध इनमे हो सकता है और तब पदस्थ ध्यान कारण होता है और रुपातीत ध्यान कार्य होता है ।
इस प्रकार पदस्थ ध्यानमे ध्याये गये सिद्धपरमेष्ठी के स्वरूपका वर्णन करके अब पदस्थ ध्यानमे ध्याये गये आचार्य परमेष्ठीका स्वरूप कहा जाता है ।
दसरारणपहाणे वीरियचारित वर तवायारे ।
अप्प पर च जुं जइ मो प्रायरिओ मुणी भेश्रो ॥५२॥
ग्रन्वय - दसणरणाणपहाणे वीरियचारित्त तवाबारे अप्प च पर जो जु जइ सो आयरिम्रो मुणी प्रो ।
अर्थ - दर्शन ज्ञान है प्रधान जिसमे, वीर्य, चारित्र व तपके ग्राचारमे अर्थात् दर्शनाचार, ज्ञानाचार, वीर्याचार, चारित्राचार प्रौर तपाचार - इन पाच प्राचारोमे अपनेको व परको जो लगाता है वह प्राचार्य मुनि ध्यान करने योग्य है ।
प्रश्न १-- दर्शनाचार किसे कहते है ?
उत्तर - सम्यग्दर्शनमे आवरण याने परिणमन करनेको दर्शनाचार कहते हैं ।
प्रश्न २ - सम्यग्दर्शनका सुगमतागम्य स्वरूप क्या है ?
उत्तर - परमपारिणामिक भावरूप चैतन्यविलास ही जिसका लक्षण है, भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्मसे रहित, अन्य समस्त परद्रव्गोसे भिन्न निज शुद्ध मात्मा ही उपादेय है, ऐसी रुचि जिस दृष्टिमे होती है उसे सम्यग्दर्शन कहते है ।
प्रश्न ३ - ज्ञानाचार किसे कहते है ?