Book Title: Dravyasangraha ki Prashnottari Tika
Author(s): Sahajanand Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala

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Page 245
________________ गाथा-४२ २३७ भिन्न है। प्रश्न ४-संशय किसे कहते है ? उत्तर-अनेक कोटियोके स्पर्श करने वाले ज्ञानको सशय कहते है। जैसे किसी चमकीली चीजमे अनेक कोटिके विकल्प उठना कि यह सीप है या चांदी या काँच, अथवा धर्मका स्वरूप जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रणीत ठीक है या अन्य मतो द्वारा कहा हुया ठीक है, अथवा ब्रह्म कूटस्थ है या परिणामो इत्यादि । प्रश्न ५-अनध्यवसाय किसे कहते है ? उत्तर- जिसमे न तो यथार्थ ज्ञानकी झलक हो, न संशयके भी विकल्प उठ सकें और न विपर्यज्ञान भी हो सके, ऐसे अनिश्चित वोधको अनध्यवसाय कहते है। जैसे कभी चलते हुये पुरुषके पैरमे तृण छू जाय तो साधारण पता तो रहे, किन्तु यह कुछ ख्याल भी नही जमे कि यह क्या है, अथवा जीवका साधारण पता तो रहे कि मै हू, किन्तु यह कुछ भी ख्याल न जमे कि मै क्या हू इत्यादि। प्रश्न ६-विपर्ययज्ञान किसे कहते है ? उत्तर-विपरीत एक कोटिके ज्ञानको विपर्ययज्ञान कहते है। जैसे रस्सीको साँप जान लेना, अथवा आत्माको भौतिक जान लेना अथवा परमात्माको ऐसा समझना कि वह जीवोसे पुण्य अथवा पाप कराता है या जीवोको सुख या दुःख देता है इत्यादि । प्रश्न ७ - ज्ञान साकार होता है, इसका तात्पर्य क्या है ? उत्तर-यह जीव है, यह पुद्गल है, यह मनुष्य है, यह तिर्यञ्च है इत्यादि रूपसे निश्चय करने वाले, ग्रहण करने वाले ज्ञानको साकार कहते है । ज्ञानमे ज्ञेय जैसा जाननरूप आकारका ग्रहण होता है, इसलिये ज्ञानको साकार कहते है। प्रश्न -ज्ञानके कितने भेद है ? उत्तर-ज्ञानके अनेक दृष्टियोसे अनेक भेद है । जैसे ज्ञान दो प्रकारका है-एक प्रत्यक्ष और दूसरा परोक्ष । ज्ञान ५ प्रकारका है-मति, श्रुत, अवधि, मन पर्यय व केवलज्ञान । जान आठ प्रकारका है, कुमति, कुश्रुत, कुअवधि, ये ३ मिथ्याज्ञान और मति, श्रुत, अवधि, ये ३ सम्यग्ज्ञान और मन.पर्यय व केवलज्ञान । इनके प्रत्येकके भी अनेक भेद है। इन सबका वर्णन ५वी गाथामे विस्तारपूर्वक कहा है, इसलिये इनका वर्णन यहाँ नही किया जाता है। प्रश्न :-- वस्तुतः सम्यग्ज्ञानका क्या लक्षण है ? उत्तर-निज गुण पर्यायमे एकत्वरूपसे रहने वाले, सहज शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावमय निज अात्मस्वरूपका ग्रहण करना सम्यग्ज्ञानका लक्षण है। प्रश्न १०-शुद्ध स्वभावके अतिरिक्त अन्य भावो व द्रव्योका यथार्थ ज्ञान करना

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