Book Title: Dravyasangraha ki Prashnottari Tika
Author(s): Sahajanand Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala

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Page 264
________________ २५६ द्रव्यसग्रह-प्रश्नोत्तरी टीका ध्यान प्रतिपाती हो जाता है । गिर प्रश्न २६-उत्तम ध्यानकी प्राप्तिके लिये क्या कर्तव्य होना चाहिये ।। उत्तर- देखे, सुने व अनुभव किये हुये समस्त विषयोके विकल्पोका त्याग होना चाहिये । प्रश्न ३०-विकल्पोके त्याग कर देनेका उपाय क्या है ?.. Trai/उत्तर-प्रथम तो पदार्थोंका स्वरूप जानना चाहिये पश्चात् जो भेदज्ञान होता है उस] भेदज्ञानके द्वारा समस्त परपदार्थोसे भिन्न निज आत्मतत्त्वकी प्रतीति होनी चाहिये । इस आत्मतत्त्वको प्रतीतिके बलसे सहज आनन्दका अनुभव होता है। यही निर्विकल्प स्वका अनुभव होनेसे आत्मानुभव है । इस आत्मानुभवके अभिमुख होना विकल्पोके त्याग कर देनेका) अमोघ उपाय है। .. अब निर्विकल्प ध्यानकी सिद्धिके लिये आवश्यक कर्तव्यका उपदेश किया जाता है मा मुज्झह मा रज्जह मा दूमह इट्टणिप्रत्येसु । थिरमिच्छह जड चित्त विचित्त झारणप्पसिद्धिए ॥४८॥ अन्वय-विचित्तझाणप्पसिद्धिए जइ चित्त थिरमिच्छह, इट्टरिणअत्थेमु मा मुभह मा रज्जह मा 'दूसह । अर्थ-निविकल्प ध्यानकी सिद्धिके लिये यदि चित्तको स्थिर करना चाहते हो तो इष्ट अनिष्ट पदार्थोमे न तो मोह करो, न राग करो और न द्वेष करो। प्रश्न १- विचित्तका अर्थ निर्विकल्प कैसे किया ? उत्तर- चित्तका अर्थ है चित्तमे होने वाले समस्त शुभ अथवा अशुभ विकल्प और वि उपसर्गका अर्थ है विगत याने नष्ट हो गया है । अब इस अव्ययीभाव समासमे यह अर्थ ध्वनित हुआ कि विगत चित्त यस्मिन् = जिस परिणाममे विकल्प नष्ट हो चुका है वह ध्यान । इस प्रकार विचित्तका अर्थ निर्विकल्प हुआ। प्रश्न २-निर्विकल्प ध्यानकी सिद्धिके लिये चित्तको स्थिर करनेकी इच्छा क्यो प्रदशित की? उत्तर-चित्तकी स्थिरता बिना उत्तम ध्यानकी सिद्धि नही होती, क्योकि विकल्पोकी उत्पत्ति चित्तसे होती है । जब चित्त अरिथर होता है, चित्तका परिवर्तन होता रहता है तब विकल्पोकी भरमार होती है। अत निर्विकल्प ध्यानकी प्रसिद्धिके लिये चित्तको स्थिरता परमावश्यक है। प्रश्न ३-चित्त स्वय विकल्पका मूल है तब चित्तकी स्थिरतामे भी नाना नही तो कोई एक विकल्प तो रहना ही चाहिये ?

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