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गाथा ४५
२४५ प्रश्न ११- केवली भगवान के दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग दोनो एक साथ क्यो होते
उत्तर- केवली भगवान के ज्ञानावरण व दर्णनावरण- इन दोनो आवरणोका अभाव होनेसे और वीर्यान्तगय कर्मके प्रभाव होनेके कारण पूर्ण प्रकट होनेसे दोनो उपयोगोका सहन परिणमन निरन्तर होता रहता है, अत केवली भगवानके दोनो उपयोग एक साथ होते है ।
प्रश्न १२-दर्शन व सम्यग्दर्शनमे क्या अन्तर है ?
उत्तर- ज्ञानोपयोगकी प्रवृत्तिके अर्थ आत्माका अन्तरंगमे आत्मग्रहणरूप जो प्रयत्न । होता है उसे दर्शन कहते है । यह दर्शन भव्य, अभव्य, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, छद्मस्थ, भगवान सभी प्रात्मायोमे होता है।
दर्शनके विपयभूत निज आत्माके सहजस्वभावका अनुभव जिस निर्मलताके वारण होता है उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं । सम्यग्दर्शन निकट समारी भव्य जीव एव भगवानके होता
प्रश्न १३- जव दर्शन सभी जीवोके होता है तो सम्यग्दर्शन सब जीवोके क्यो नहीं हो जाता है?
उत्तर -दर्शन तो कुछ भी जाननेके लिये होने वाला अन्तम ग्व प्रयत्न है । यह तो सभी जीवोंके होना ही होता है, चाहे वे मिथ्यादृष्टि हो या सम्यग्दृष्टि । किन्तु सम्यग्दर्शन विपरीत यभिप्रायके नष्ट हुये विना नही होता है । अंतः जिनके विपरीत अभिप्राय है उनके न होना नो आवश्यक है, परन्तु सम्यग्दर्शन होना उस समय असभव है।
प्रश्न १४- दर्शन उपयोगके समय तो प्रात्माका प्राश्रय रहता है, फिर उसे सम्यक्त्व क्यो नही होता है ?
उनर- बाह्य पदार्थोकी जिनके रुचि पाई जाती है वे वाह्य पदार्थक जानने और हित-, पर मानने धुनमे रहते है । अतः दर्शनोपयोग द्वारा प्रात्ममुग्ध होकर भी उन्हें आत्माको प्रतीति नहीं होती, अग दर्शनोपयोगमे होने वाला प्रात्माश्रय सम्यक्त्वमे होने वाले अथवा सम्पनत्वने निव होने वाले यात्माश्रयन भिन्न है।
इम पकार दर्शनोपयोगके वर्गान तर सम्यम्नान का अन्तराधिधार ममाप्त करो अब म याचारिता निम्पण नग्ने है
गुहायो विगिविनी मुहे पयिनी य जाण चारित ।
परममिदि गुनो ववहारगया दु जिग्गाशय ॥४॥ पम्पय--प्रगृहरादो विरिणपिनी य गुरे पबित्ती वदमिदि गुत्तिरूपं चारित्तं भाग, वहारमा निभरि ।