Book Title: Dravyasangraha ki Prashnottari Tika
Author(s): Sahajanand Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala

View full book text
Previous | Next

Page 246
________________ २३८ क्या सम्यग्ज्ञान नही है ? उत्तर-- जिनमे एकता जोडने वाले ज्ञानके होनेपर अन्य पदार्थों व भावोका भी ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है । प्रश्न ११ – ग्रात्मस्वरूपको जाने या न जाने, केवल बाह्य पदार्थोंको यथार्थ जानना सम्यग्ज्ञान क्यो नही कहलाता ? उत्तर -- श्रात्मस्वरूप मे एकता जोड़े बिना जो भी बाह्यपदार्थ ज्ञानमें श्रावेग उन्हे जानेगा तो किन्तु उनमे एकता जोडकर जानेगा । परमे अपना कुछ भी है, ऐसा वस्तुका स्वरूप ही नही है । त वह सम्यग्ज्ञान नही कहलाता । लोकमे लौकिक दृष्टिसे बाह्य पदार्थोका ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है । प्रश्न १२ -- ज्ञानका फल क्या है ? द्रव्यसग्रह - प्रश्नोत्तरी टीका उत्तर -- ज्ञानका फल निश्चयनयमे तो ग्रज्ञाननिवृत्ति है और व्यवहारनयसे उपेक्षा होना, उपादेय एव हे की बुद्धि होना फल है । उदासाना प्रश्न १३ - सम्यग्ज्ञान होनेपर किससे उपेक्षा हो जाती है ? उत्तर - सम्यग्ज्ञान होनेपर समस्त प्रध्रुव भावोसे उपेक्षा हो जाती है । बुद्धि हो जाती है ? प्रश्न १४ - सम्यग्ज्ञानीके किसमे उपादेय एव हैय उत्तर - सम्यग्ज्ञान जीवके निज शुद्ध प्रात्मतत्त्वमे उपादेय बुद्धि होती है और इस ध्रुव निज चैतन्यतत्वके अतिरिक्त जितने भी भेद दर्शक, विकल्प, श्रीपाधिक भाव व अन्य सभी पर्याय व परद्रव्य - इन सबमे हेयबुद्धि रहती है । प्रश्न १५ – निश्चय, व्यवहाररूप उक्त फलोकी तरह क्या ज्ञान भी दो प्रकारका होता है ? उत्तर - ज्ञानके भी दो भेद है - (१) निश्चयज्ञान और ( २ ) व्यवहारज्ञान | प्रश्न १६ -- निश्चयज्ञान किसे कहते हैं ? उत्तर- जो ज्ञान ज्ञानमय आत्माके साथ एकत्व जोड रहा हो अथवा जो ज्ञान निर्वि कल्परूप से अपना अनुभव न कर रहा हो उसे निश्चयज्ञान कहते है | प्रश्न १७ - व्यवहारज्ञान किसे कहते है ? उत्तर- जिस ज्ञानके परपदार्थोकी श्रोर वासना, विचार एव विकल्प है उस ज्ञानको व्यवहारज्ञान कहते है । प्रश्न १८ - उक्त दोनो प्रकारके ज्ञानोमे कौन सम्यग्ज्ञान है और कौन मिथ्याज्ञान है ? उत्तर-- निश्चय ज्ञान तो सम्यग्ज्ञान ही है, किन्तु व्यवहारज्ञान सम्यग्ज्ञान व मिथ्याज्ञान दोनो प्रकारके हो सकते है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297