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द्रव्यसग्रह-प्रश्नोत्तरी टीका उत्तर- गाथामे तो यह शब्द है "ज सामपण गहण'। जो सामान्य ग्रहण है वह दर्शन है। यदि "सामण्ण' से पहिले "भावाणं" शब्द लगाते है तो अर्थ निकलता है कि "पदार्थोंका सामान्य ग्रहण" । पदार्थोका सामान्य धर्म है सामान्यसत्ता, जो कि सबमे व्यापक है । इस प्रकार अर्थ निकला कि पदार्थोंको सामान्यसत्ताका अवलोकन (ग्रहरण) दर्शन है।
प्रश्न ५-~-यदि "सामण्णा" शब्दसे पहिले "भावाण" शब्द न जोडा जाय तब क्या अर्थ होगा?
उत्तर-यदि "सामण्ण" से पहिले 'भावाणं' शब्द न जोडा जाय तव यह 'भावारण' शब्द "पायाराग" से पहिले जुडेगा। तब गाथाका यह अन्वय होगा "अटठे अविसेसिदूरण भावारण पायार रणेव कट्टु ज सामण्णं गहरा त दमण इदि समए भणाये"। इसका अर्थ हा कि पदार्थोंको भेदरूप न देख करके और उन भावोका (पदार्थोका) आकार ग्रहण न करके जो सामान्य रूपसे ग्रहण (प्रतिभास) है वह दर्शन है। ऐसा सिद्धान्तमे कहा गया है।
" -प्रश्न ६ - सामान्य रूपसे ग्रहण क्या होता है ? Siro- उत्तर-प्रात्माका अवलोकन ही सामान्यरूपसे ग्रहण कहलाता है अथवा सामान्य के ग्रहणको सामान्य ग्रहण कहते है। सामान्यके मायने है प्रात्मा, सो प्रात्माके ग्रहणको सामान्यग्रहण कहते है। - प्रश्न ७- सामान्यका अर्थ प्रात्मा कैसे हो जाता है ? उत्तर- "मानेन ज्ञानेन प्रमाणेन सहित, समान, समानस्य भाव सामान्यम इस
NAAOnर व्युत्पत्तिसे यह अर्थ हुआ कि जो द्रव्य ज्ञान करिके सहित है। उसे समान कहते है और समानके । भात्रोको सामान्य कहते है । सो समान हुमा चेतन (आत्मा) व समानका भाव हुआ चैतन्य । चैतन्यका चेतन (आत्मा)से अभेद है, अत सामान्यका अर्थ आत्मा हुमा ।
अथवा आत्माका जाननेके सबन्धमे समान भाव है अर्थात् आत्माके ऐसा पक्ष नही है कि मैं इसको नही जानने दगा और इस विपयको जानने दंगा। क्योकि प्रात्माका जानन- स्वभाव है, अत जब जैसी योग्यता होती है उसके अनुकूल जानता ही है । अत् समानभाव होनेसे सामान्यका अर्थ आत्मा हुआ। ।
प्रश्न - वस्तु सामान्यविशेषात्मक है । उसमे सामान्यका ग्रहण करना दर्शन है व विशेपका ग्रहण करना ज्ञान है, क्या यह अर्थ ठीक प्रतीत होता है ?
उत्तर- नही, वस्तुके सामान्य अशका ग्रहण करने वाला दर्शन और विशेप अशको ग्रहण करने वाला ज्ञान माना जावे तो ज्ञान अप्रमाण हो जावेगा। क्योकि ज्ञानने एक अश ही जाना, अन्य अशोका उसे ज्ञान ही नही है। पूर्ण वस्तुको जानना सो ज्ञान कहलाता है। शानका विषय अपूर्ण वस्तु नही होता
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