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द्रव्यसग्रह-प्रश्नोत्तरी टीका क्योकि य यदि प्रेरक या मुख्य कारण हो जायें तो इन दोनोका कार्य मात्सर्यपूर्वक होना चाहिये तथा जो द्रव्य गति करे वह गति करे, जो ठहरे वह ठहरे ही आदि अनेक दोष आते
प्रश्न :- उदासीन कारण माननेपर यह अव्यवस्था क्यो नही होती ?
उत्तर-जीव, पुद्गल निश्चयसे अपने परिणमनसे गति, स्थिति करते है, हां यह बात अवश्य है कि वे धर्म अधर्म द्रव्यको निमित्त पाकर गति स्थिति करते है, अतः दोष नही है ।
प्रश्न १०- धर्म, अधर्मद्रव्य क्या उपादेय तत्त्व है या हेय तत्त्व ? उत्तर-शुद्धात्मतत्त्वसे भिन्न होनेसे ये भी हेय तत्त्व है । इस प्रकार अधर्मद्रव्यका वर्णन करके आकाशद्रव्यका वर्णन करते है
अवगासदाणजोग्ग जीवादीण वियाण प्रायास ।
जेण्ह लोगागास अल्लोगागास मिदि दुविह ॥१६॥ अन्वय-जीवादीण अवगासदारराजोग्ग प्रायासं वियाण, लोगागासं अलोगागास दुविहं इदि जेण्ह ।
अर्थ-- जीवादि सर्वद्रव्योको अवकाश देनेमे जो समर्थ है उसे आकाश जानो। वह आकाश लोकाकाश और अलोकाकाश इस तरह २ प्रकारका है । वह सब जिनेन्द्रदेवका सिद्धान्त है।
प्रश्न १.- आकाश द्रव्य वितने है ? उत्तर- आकाश एक प्रखण्ड द्रव्य है । प्रश्न २-- अखण्ड आकाशके लोकाकाश व अलोकाकाश ये भेद कैसे हो सकते है ?
उत्तर- ये भेद उपचारसे है-जितने प्रकाशदेशमे सर्वद्रव्य रहते है उतनेको लोकाकाश कहते है और उससे बाहरके आकाशको अलोकाकाश कहते हैं । आकाशमे स्वय भेद नही है।
प्रश्न ३-अाकाशमे कितने गुण है ?
उत्तर-- आकाशमे असाधारण गुण तो अवगाहनाहेतुत्व है, इसके अतिरिक्त अस्तिस्वादि अनन्तगुरण भी है। यह द्रव्य भी निष्क्रिय और सर्वव्यापी है। इसका कही भी अन्त नही है।
प्रश्न ४- यदि सब द्रव्य आकाशमे रहते है तो सब आकाशमात्र रह जायगा ?
उत्तर--निश्चयसे तो प्रत्येक द्रव्य अपने खुदके प्रदेशोमे रहता है । बाह्यसम्बन्ध दृष्टि से ये आकाशक्षेत्रमे ही पाये जाते हैं अतः व्यवहारसे सब द्रव्य आकाशमे रहते है ऐसा कहा