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गाया ३४ चैतन्यस्वभावसे ही प्रकट हुपा है, अतः सिद्ध परमात्मतत्त्व चैतन्यस्वभावसे प्रकट होनेके कारण इस चैतन्यस्वभावको कारणपरमात्मा कहते है। मर"
प्रश्न - अब सवरका परिणाम किस रूप है ?
उत्तरः-शुद्ध चेतनभाव रूप है याने अनाद्यनन्त, अहेतुक निज चैतन्यस्वभावकी भावना, उपयोग, अवलम्बन व सहज परिणतिरूप है।
प्रश्न १०-द्रव्यसवर किसे कहते है ?
उत्तर-अब सवरके निमित्तसे होने वाले नूतन द्रव्यकर्मके आनेके अभावको द्रव्यसवर कहते है।
प्रिश्न ११-जो कर्म आ ही नही रहे है उ/पका संवर क्या ?
उत्तर-कर्म पहिले प्राया करते थे व चेतनके परिणामोके ही निमित्तसे पाया करते थे तो अब विरुद्ध चेतनभावके प्रतिपक्षी शुद्ध चेतनभाव है सो पूर्वमे आते थे, उसकी अपेक्षासे व अब वे विभावरूप चेतनभाव नही हो सकते जो द्रव्यास्रवके कारण बनते । इन सब दृष्टियो से सवर युक्तियुक्त सिद्ध हो जाता है ।
प्रश्न १२- १४८ कर्मप्रकृतियोका सवर क्या किसीसे कम होता है या यथा तथा ? उत्तर-गुणविकासके याने गुणस्थानके अनुसार इन १४८ प्रकृतियोका सवर होता
प्रश्न १३-मिथ्यात्व गुणस्थानमे कितनी प्रकृतियोका सवर होता है ?
उत्तर-मिथ्यात्व गुणस्थानमे सवर तो नही होता है, किन्तु प्रायोग्यलब्धिके कालमें ३४ बधापसरण होते है।
प्रश्न १४-बन्धापसरण और संवरमे क्या अन्तर है ?
उत्तर-बन्धापसरण तो मिथ्यात्वगुणस्थानमे प्रायोग्यलब्धिके समय हो जाता है। वह मिथ्यादृष्टि यदि कारणलब्धि न कर सका तो प्रायोग्यलब्धिसे गिरकर फिर इसी गुणस्थान मे बन्ध करने लगता तथा यदि ऊपर गुणस्थानोमे चढा तो भी इनमेसे कुछ प्रकृतियोका कळ गुणस्थानो तक बन्ध करने लगता। किन्तु जिस प्रकृतिका सवर जिस गुणस्थानमे होता है। उसमे व उससे ऊपरके सब गुणस्थानोमे व अतीत गुणस्थानमे कही भी उसका बन्ध नही हो सकता । ये बन्धापसरण अभव्यके भी हो सकते है, किन्तु संवर कभी नहीं होता।
प्रश्न १५- ये ३४ बन्धापसरण किस प्रकार होते है ?
उत्तर-मिथ्यादृष्टि जीव विशुद्धिके बलसे जब क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धि और देशना. लब्धि प्राप्त करनेके पश्चात् प्रायोग्यलब्धिमे आता है तब वह केवल अन्तःकोडाकोडी सागरको स्थिति बाधता है अर्थात् एक कोडाकोडी सागरसे कम स्थिति बाधता है तथा इसके बाद भी