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गाथा ४१
२२१ प्रश्न २१- निश्चयनि शक्ति प्रङ्ग किसे कहते है ?
उत्तर-- इहलोकभय, परलोकभय, अत्राणभय, अगुप्तिभय, मरणभय, वेदनाभय और आकस्मिकभय, इन सात भयोसे मुक्त होकर घोर उपसर्ग व परोषहका प्रसङ्ग आनेपर भी निज निरञ्जन निर्दोष परमात्मतत्त्वकी प्रतीतिसे चलित न होनेको निश्चयनि शंकित अङ्ग कहते है।
प्रश्न २२- इहलोकभय किसे कहते है ?
उत्तर-इस लोकमे मेरा कैसे जीवन गुजरेगा- धनकी आयका उपाय कम होता जा रहा है, कानून अनेक ऐसे बनते जा रहे है जिससे सपत्तिका रहना कठिन है आदि भय होने को इहलोकभय कहते है। यह भय सम्यग्दृष्टिके नही होता, क्योकि वह चैतन्यतत्त्वको ही लोक समझता है, उसमे परभावका प्रवेश नही।
प्रश्न २३- परलोकभय किसे कहते है ?
उत्तर- प्रगले भवमे कौनसी गति मिलेगी, कही खोटी गति न मिल जाय, परलोकमे कष्टोका सामना न करना पडे आदि भयको परलोकभय कहते है। यह भय सम्यग्दृष्टिके नही होता, क्योकि वह चैतन्यभावको ही लोक समझता है, उसमे कोई विघ्न नही होता।
प्रश्न २४-- अत्राणभय किसे कहते है ?
उत्तर-- मेरा रक्षक, सहाय, मित्र कोई नहीं है, मेरी कैसे रक्षा होगी-इस प्रकारके भयको अत्राणभय कहते है। यह भय सम्यग्दृष्टिके नही है, क्योकि वह निजस्वरूपको ही अपना शरण समझता है और वह सदा पास है ।
प्रश्न २५–अगुप्तिभय किसे कहते है ?
उत्तर-- मेरे रहनेका स्थान सुरक्षित नहीं है, मकान, किला आदि भी नही है, मेरा क्या हाल होगा इत्यादि भयको अगुप्तिभय कहते है। यह सम्यग्दृष्टिके नही होता, क्योकि उसे द्रव्योकी स्वतन्त्रताकी यथार्थ प्रतीति है। किसी द्रव्यमे किसी अन्य द्रव्यका, अन्य द्रव्य गुण या पर्यायका प्रवेश ही नही हो सकता, अत. सर्व द्रव्य स्वय गुप्त है।
प्रश्न २६-- मरणभय किसे कहते है ? ।
उत्तर-- मरणका भय माननेको मरणभय कहते है । यह भय सम्यग्दृष्टि प्रात्माके नही होता है, क्योकि उसकी यथार्थ प्रतीति है कि "मेरे प्राण तो ज्ञान और दर्शन है, उनका कभी. वियोग ही नहीं होता, अत मेरा मरण होता ही नही है ।"
प्रश्न २७-- वेदनाभय किसे कहते है ?
उत्तर-मुझे कभी रोग न हो जावे या यह रोग बढ न जावे, ऐसा भाव करना अथवा व्याधिको पीडा भोगते हुए भयभीत होना सो बेदनाभय है । यह भय भी सम्यग्दृष्टि