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द्रव्यसंग्रह-प्रश्नोत्तरी टीका ___ इस प्रकार सवरतत्त्वका वर्णन करके अव निर्जरातत्त्वका वर्णन करते है ।
जह कालेण तवेण य भुत्तरस कम्मपुग्गल जेण ।
भावेण सडदि रणेया तस्सडण चेदि णिज्जरा दुविहा ॥३६॥ अन्वय-जेरण भावेण जहकालेण य तवेण भुत्तरस कम्मपुग्गल सडदि च तस्सडणं इति विज्जरा दुविहा णेया ।
अर्थ- जिस आत्मपरिणामसे समय पाकर या तपस्याके द्वारा भोगा गया है रस जिसका, ऐसा कर्मपुद्गल झडता है वह और कर्म पुद्गलोका झडना- इस प्रकार निर्जरा दो प्रकारको जानना चाहिये।
प्रश्न १-किस प्रात्मपरिणामसे कर्मपुद्गलको निर्जरा होती है ?
उत्तर-निर्विकार चैतन्यचमत्कारमात्र निजस्वभावके सम्वेदनसे उत्पन्न सहज आनदरसके अनुभव करने वाले परिणामसे कर्म पुद्गलोकी निर्जरा होती है ।
प्रश्न २-अपने समयपर फल देकर झड़ने वाले कर्मोंकी निर्जरामे भी क्या इस शुद्धात्मसम्वेदनपरिणामको आवश्यकता है ?
उत्तर-मावश्यकता तो नहीं है, किन्तु यथाकाल होने वाली निर्जरा भी यदि शुद्धात्मसवेदन परिणामके रहते हुये होती है तो वह सवरपूर्वक निर्जरा होनेसे मोक्षमार्ग वाली निर्जरा कहलाती है।
प्रश्न ३- यदि अशुद्ध सम्वेदनाके रहते हुये यथाकाल निर्जरा हो तो क्या वह निर्जरा नही है?
उत्तर- अशुद्ध 'सवेदनके होते हुये जो यथाकोल निर्जरा होती है वह अज्ञानियोके होती है। ऐसी निर्जराको उदय शब्दसे कहनेकी प्रधानता है। इसमे थोडा कर्मद्रव्य तो झडता है और बहुत अधिक कर्मद्रव्य बध जाता है। यह मोक्षमार्ग सम्बन्धी निर्जरा नहीं है और न इस निर्जराका यह प्रकरण है।
प्रश्न ४- अज्ञानी जीवके बिना कालके, पहिले भी तो निर्जरा हो जाती है, उसे क्या कहेगे?
उत्तर- उदयकालसे पहिले इस तरह भडनेको उदीरणा कहते हैं । यह उदीरणा भी अशुभ प्रकृतियोकी होती है, क्योकि अज्ञानी जीवके उदीरणा सक्लेशपरिणामवश होती है और अधिक वेदना उत्पन्न करती हुई होती है।
प्रश्न ५- तपसे कर्म समयसे पहिले क्यो झड जाते है ?
उत्तर-तप इच्छानिरोधको कहते है । जब इच्छा = स्नेहको चिकनाई यो गीलाई नही रहती तब कर्मपुञ्ज बालू रेतकी तरह स्वय झड जाते है।