Book Title: Dravyasangraha ki Prashnottari Tika
Author(s): Sahajanand Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala

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Page 221
________________ गाथा ३५ २१३ की विपक्षासे ५ प्रकारके होते है- (१) सामायिक, (२) छेदोपस्थापना, (३) परिहारविशुद्धि | (४) सूक्ष्मसाम्पराय, ( ५ ) यथाख्यात चारित्र । प्रश्न २९३ -- सामायिकचारित्र किसे कहते है ? उत्तर - सर्व जीव चैतन्यसामान्यस्वरूप है, सब समान है - इस भावनाके द्वारा समता परिणाम होने, स्वरूपानुभव के बलसे शुभ अशुभ सङ्कल्प विकल्प जालसे शून्य समाधिभाव के होने, निर्विकार निज चैतन्यस्वरूप के अवलम्बनसे रागद्वेषसे शून्य होने, सुख-दुःख, जीवनमरण लाभ लाभमे मध्यस्थ होने व विकल्परहित परमनिवृत्तिरूप व्रतके पालनेको सामायिक चारित्र कहते है | प्रश्न २६४ - छेदोप स्थापना चारित्र किसे कहते है ? उत्तर - सर्वविकल्पपरित्यागरूप सामायिकमे स्थित न रह सकने पर अहिसा व्रत, सत्यव्रत, अचौर्यव्रत, ब्रह्मचर्यव्रत, अपरिग्रहव्रत - इन पाँच प्रकारके व्रतोके द्वारा पापोसे निवृत्त होकर अपने आपको शुद्धात्मतत्त्वको ओर उन्मुख करनेको छेदोपस्थापनाचारित्र कहते है । अथवा, उक्त पाँच प्रकारके महाव्रतोमे कोई दोष लगने पर व्यवहार प्रायश्चित व निश्चय प्रायश्चित द्वारा शुद्ध होकर निज शुद्ध प्रात्मतत्त्व की ओर उन्मुख होने को छेदोपस्थापनाचारित्र कहते है ? प्रश्न २९५ - परिहारविशुद्धिचारित्र किसे कहते है ? उत्तर - रागादि विकल्पोके विशेष पद्धतिसे परिहारके द्वारा आत्माकी ऐसी निर्मलता प्रकट होना जिससे एक ऋद्धिविशेष प्रकट होती है, जिसके कारण विहार करते हुये किसी जीवको रच भी बाधा न हो, उसे परिहारविशुद्धि चरित्र कहते है । प्रश्न २९६ – सूक्ष्म साम्परायचारित्र किसे कहते है ? उत्तर- सूक्ष्म और स्वानुभवगम्य निज शुद्धात्मतत्त्वके सम्वेदने रूप जिस चारित्र से राम ग्रवशिष्ट संज्वलन सूक्ष्मलोभका भी उपक्स या क्षय हो उसे सूक्ष्मसाम्परायचारित्र कहते है । प्रश्न २६७ – यथाख्यातचारित्र किसे कहते है ? उत्तर - जैसा स्वभावसे सहज शुद्ध, कषायरहित आत्माका स्वरूप है वैसे ख्यात याने प्रकट हो जानेको यथाख्यातचारित्र कहते है प्रश्न २६८ - उक्त भावसवर विशेषोके द्वारा क्या पापकर्मका ही सवर होना है या पुण्यकर्मका भी सवर होता है ? उत्तर — निश्चयरत्नत्रय के साधक व्यवहाररत्नत्रयरूप शुभोपयोगमे हुये नावसवरविशेष मुख्यतया पापकर्मके सवरके कारण है, और व्यवहाररत्नत्रय द्वारा साध्य निश्वयरत्नश्रवरूप शुद्धोपयोगमे हुये भावसवर विशेष पाप, पुण्य दोनो कर्मो के सवर करने वाले होते हैं ।

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