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गाथा ३८
२१९ वास, (५५) प्रशस्त विहायोगति, (५६) प्रत्येक शरीर, (५७) त्रस, (५८) सुभग, (५९) सुस्वर, (६०) शुभ, (६१) वादर, (६२) पर्याप्ति, (६३) स्थिर, (६४) प्रादेय, (६५) यश.. कीति, (६६) तीर्थकर, (६७) निर्माणनामकर्म, (६८) उच्चगोत्र ।
प्रश्न 8-पापके कितने भेद है ? उत्तर-पापके दो भेद है-(१) भावपाप और (२) द्रव्यपाप । प्रश्न १०- भावपाप। उत्तर-- अशुभ भाव करि युक्त जीवको अथवा जीवके अशुभ भावको भावपाप कहते
है
प्रश्न ११- द्रव्यपाप किसे कहते है ? ।
उत्तर-- असाता आदि अशुभ फल देनेके निमित्तभूत पुद्गलकर्मप्रकृतियोंको द्रव्यपाप कहते है।
प्रश्न १२-- पापप्रकृतियां कितनी है ?
उत्तर- पापप्रकृतियाँ १०० है—(१-५) पांच ज्ञानावरण, (६-१४) नौ दर्शनावरण, (१५-४२) अट्ठाइस मोहनीय, (४३-४७) पाँच अन्तराय, (४८) असातावेदनीय, (४६) नरकायु, (५०) नरकगति, (५१) तिर्यग्गति, (५२) एकेन्द्रियजाति, (५३) द्वीन्द्रियजाति, (५४) त्रीन्द्रियजाति, (१५) चतुरिन्द्रिय जाति, (५६) न्यग्नोधपरिमडलसस्थान, (५७) स्वातिसस्थान, (५८) वामनसस्थान, (५६) कुब्जकसस्थान, (६०) हुडकसस्थान, (६१) वज्रनाराचसहनन, (६२) नाराचसहनन, (६३) अर्द्धनाराचसहनन, (६४) कीलकसहनन, (६५) असंप्राप्तसृपाटिकासहनन, (६६-७३) आठ अशुभस्पर्श, (७४-७८) पाँच अशुभरस, (७६-८०) दो अशुभगध, (८१-८५) पाँच अशुभवर्ण, (८६) नरकगत्यानुपूर्व्य, (८७) तिर्यग्गत्यानुपूर्व्य, (८८) उपघात, (८९) अप्रशस्तविहायोगति, (६०) साधारणशरीर, (९१) स्थावर, (६२) दुर्भग, (६३) दु स्वर, (६४) अशुभ, (६५) सूक्ष्म, (६६) अपर्याप्ति, (६७) अस्थिर, (६८) अनादेय, (६६) अयशकीर्तिनामकर्म, (१००) नीचगोत्रकर्म।
प्रश्न १३- पुण्यप्रकृति ६८ व पापप्रकृति १००, ये मिलकर १६८ कैसे हो गई ?, प्रकृतियाँ तो कुल १४८ ही है।
उत्तर- पाठ स्पर्श, पांच रस, दो गध, पांच वर्णनामकर्म, ये २० प्रकृतियां पुण्यरूप भी होती है और पापरूप भी होती है, अतः इन बीसको दोनो जगह गिननेसे १६८ हुई है, सामान्य विवक्षा करके बीस निकाल देनेसे १४८ ही सिद्ध हो जाती है।
प्रश्न १४- पुण्यप्रकृतियोमे सबसे विशिष्ट और प्रकृष्ट पुण्य प्रकृति कौन है ? उत्तर-तीर्थङ्करनामकर्म प्रकृति समस्त पुण्यप्रकृतियोमे विशिष्ट और प्रकृष्ट पुण्य