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ग.ना ४०
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प्रश्न ६ - सम्यक्त्व, ज्ञान व चारित्र गुरण आत्मामे ही क्यो होते हैं ? उत्तर - ऐसा श्रात्माका स्वभाव ही है । इन गुणोका एक पुञ्ज ही आत्मा है । आत्मा तो एक स्वभाववान् है, किन्तु व्यवहारनयसे उम स्वभावको समझने वाली ये शक्तियाँ है । प्रश्न ७- एक आत्मा त्रितयात्मक कैसे है ?
उत्तर - मैं इम शुद्ध श्रात्माका अपने आपमे निराकुल सहज प्रानन्द स्वरूप हूं - ऐसी प्रतीतिवे स्वभावसे बर्तना सम्यग्दर्शन है, निराकुल प्रानन्दके सवेदनसे बर्तना सम्यग्ज्ञान है और ऐसी ही स्थितिका स्थितिकरण होना सम्यक्चारित्र है । ये तोनो अभेदनयसे एक शुद्ध श्रात्मद्रव्य ही हुआ ।
प्रश्न ८ - निराकुल सहज प्रानन्दके सवेदनका उपाय क्या
उत्तर - प्रविकार चिच्चमत्कारमात्र निज स्वभावकी भावना सहज श्रानन्दकी उत्पत्ति का उपाय है ।
प्रश्न - निजस्वभावकी दृष्टि बनी रहे एतदर्थ अपनी वृत्ति कैसी बनानी चाहिये ? उत्तर - निज स्वभावकी दृष्टिकी उपयुक्तताके लिये माया, मिथ्या, निदान - इन तीन शल्योसे रहित अपनी वृत्ति होनी चाहिये ।
प्रश्न १० - मायाशल्य किसे कहते है ?
उत्तर - मेरे अपध्यानको कोई नही जानता है या न जाने, इस अभिप्राय से बाह्य वेश का श्राचरण करके लोकोका आकर्षण प्राप्त करते हुये चित्तकी मलीनता रखनेको मायाशल्य कहते है ।
प्रश्न ११ – अपध्यान किसे कहते है ?
उत्तर - रागवश परनारी आदिकी अयोग्य इच्छायें करने व द्वेपवश परका वध, धन आदि श्रनिष्टन्तिवन करनेको अपध्यान कहते है ।
प्रश्न १२ - मिथ्याशल्य किसे कहते है ?
उत्तर-- अविकार निज परमात्मतत्त्वकी रुचि न होनेके कारण बाह्य पदार्थोका श्राश्रय करके विपरीत बुद्धि बनानेको मिथ्याशल्य कहते है ।
प्रश्न १२० निदान शल्य किसे कहते है ?
उत्तर -- पाँच इन्द्रिय और मनके विपयोमे, भोगोमे निरन्तर चित्त देनेको निदान ल्य कहते है ।
प्रश्न १४ - मुक्तिका कारणभूत यह रत्नत्रयभाव ५ भावोमे से कौनसा है ? उत्तर- यह रत्नत्रयभाव प्रौदधिक तो है ही नही । और पारिणामिक भाव अकारण च प्रकार्य होता है, पत. यह रत्नत्रयभाव पारिणामिक भी नहीं है, किन्तु यथास्थान यह भाव पशमिक है, क्षायोपशमिक है और एक देश क्षायिक है । समस्त कर्मोंका क्षय हो जाना तो