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माया ३५
प्रश्न ६००- इस ससारानुप्रेक्षासे क्या लाभ है ?
उत्तर-निज शुद्ध आत्मतत्त्वको भावनाके बिना अज्ञानसे यह जीव इस प्रकार नामदेहोको धारण कर नाना क्षेत्रोमे भाव धारण कर, चारो गतियोमे भटककर, नामकर्मोको बाधता हुना भयकर दुःख भोगता चला आया है। अब यदि दुःख भोगना इष्ट नही है तो संसार-विपत्तिका विनाश करने वाली निज शुद्धात्माको भावना करनी चाहिये । इस हित कर्तव्यको प्रेरणा ससारानुप्रेक्षासे मिलती है।
प्रश्न २०१–एकत्वानुप्रेक्षा किसे कहते है ?
उत्तर- सुख, दुख, जीवन, मरण सब अवस्थावोमे मैं अकेला ही हू, ससार-मार्गका मैं अकेला कर्ता हूँ और मोक्षमार्गका मै अकेला कर्ता हू-इस प्रकार चिन्तवन करने एव द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मसे रहित ज्ञायकत्वस्वरूप एक निज शुद्ध प्रात्मतत्त्वकी भावना करनेको एकत्वानुप्रेक्षा कहते है।
प्रश्न २०२- इस भावनासे क्या लाभ है ?
उत्तर-एकत्वभावनासे दुखोकी शान्ति होकर सहज आनन्द प्रकट होता है । क्योकि दुख विकल्पोसे उत्पन्न होता है और किसी न किसी परपदार्थके सम्बन्धसे, उपयोगसे होता है, अत सहज ज्ञान, आनन्द स्वरूप निज आत्माके एकत्वमे उपयोग होनेपर निविकार अनाकुलतारूप अनुपम आनन्द प्रकट होता ही है ।
प्रश्न २०३ - अन्यत्वानुप्रेक्षा किसे कहते है ?
उत्तर-देह, परिवार, वैभव, इन्द्रियसुख आदि समस्त परभाव मुझसे भिन्न हैं. अत हेय है, इस प्रकारको भावनाको अन्यत्वानुप्रेक्षा कहते है।
प्रश्न २०४-इन्द्रियसुख मुझसे कैसे भिन्न है ?
उत्तर-मै निर्विकार ध्र व चैतन्यचमत्कार मात्र कारणसमयसार हू और ये इन्द्रियसुख कर्माधीन एव स्वभावविरुद्ध होनेसे विकार है व विनश्वर हैं । अत. मैं इन्द्रियमझते भी
भिन्न हूँ।
प्रश्न २०५- अन्यत्वानुप्रेक्षामे क्या लाभ है ?
उत्तर-परभावोकी भिन्नता जाननेसे आत्माको परदस्तूवोंमे हिनहिती होती और परमहितकारी निज शुद्ध प्रात्मतत्त्वमे भावना जागृत होती है।
प्रश्न २०६–एकत्वानुप्रेक्षा और अन्यत्वानुप्रेक्षा दोनोका विषय तब दोनोमे अन्तर क्या रहा?
उत्तर-एकत्व भावनामे तो विधिरूपसे निज अ... और अन्यत्वभावनामे अन्यके नि यात्मतत्त्व