Book Title: Dravyasangraha ki Prashnottari Tika
Author(s): Sahajanand Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala

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Page 216
________________ २०८ द्रव्यसंग्रह-प्रश्नोत्तरी टीका उत्तरोत्तर पहिलेकी अपेक्षा प्रागेको व्यवहार या बहिरङ्गरूप लक्षण जानने चाहियें: (१) अखण्ड चैतन्यस्वभावको धर्म कहते है। (२) अखण्ड चैतन्यस्वभावके पूर्ण अनुरूप परिणमनको धर्म कहते है । (३) मोह, क्षोभसे सर्वथा मुक्त प्रात्मपरिणमनको धर्म कहते है । (४) रग्गद्वेषकी बाधारहित परममहिसाको धर्म कहते है। (५) निज शुद्धात्मावे श्रद्धान, ज्ञान, आचरणरूप अभेदरत्नत्रयको धर्म कहते है । (६) शुद्धात्माके सवेदनको धर्म कहते है । (७) शुद्धात्माके अवलम्बनको धर्म कहते है । (८) शुद्धात्मतत्त्वके उपयोगको धर्म कहते है। (६) शुद्धात्मतत्त्वकी भावनाको धर्म कहते है । (१०) शुद्धात्मतत्त्वकी प्रतीति. दृष्टिको धर्म कहते है । (११) उत्तम क्षमादि दस विशुद्ध भावोको धर्म कहते है । (१२) जीवादि तत्त्वोके यथार्थ श्रद्धान, यथार्थ ज्ञान और अबतत्यागरूप भेदरलत्रय को धर्म कहते है। (१३) जो दुःखोसे छुटाकर उत्तम सुखमे ले जावे उसे धर्म कहते है । (१४) समता, वन्दनादिक साधुके षट् आवश्यकोके पालन करनेको धर्म कहते है । (१५) देवपूजा गुरूपास्ति आदिक श्रावकके ६ कर्तव्योके पालन करनेको धर्म कहते है। (१६) जीवदया करनेको धर्म कहते है। प्रश्न २६५- परीषहजय नामक भावसम्वर विशेष किसे कहते है ? उत्तर-अनेक परीषहो, वेदनाओका तीन उदय होनेपर भी सुख-दुख, लाभ, अलाभ आदिमे समतापरिणामके द्वारा जो कि सम्वर और निर्जराका कारण है, निज शुद्धात्मतत्त्वको भावनासे उत्पन्न सहज प्रानन्दसे चलित नही होनेको परीषहजय कहते है । प्रश्न २६६- परीषहजय कितने प्रकारके है ? उत्तर- परीषहजय २२ प्रकारके है-(१) वापरोपहजय, (२) तृपापरीषहजय, (३) शीतपरीषहजय, (४) उष्णपरीपहजय, (५) दशमशकपरीषहजय, (६) नाग्न्यपरीषहजय, (७) अरतिपरीषहजय, (८) स्त्रीपरीषहजय, (९) चर्यापरीषहजय, (१०) निषद्यापरीषहजय, (११) शय्यापरीषहजय, (१२) आकाशपरोपहजय, (१३) बधपरीषहजय, (१४) याचनापरीपहजय, (१५) अलाभपरीषहजय, (१६) रोगपरीषहजय, (७) तृणस्पर्शपरीषहजय, (१८) मलपरीषहजय, (१६) सत्कारपुरस्कारपरीषहजय, (२०) प्रज्ञापरीषहजय; (२१) अज्ञानपरीषहजय, (२२) अदर्शनपरीषहजय ।

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