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गाथा ३४
१६८ शरीरनामकर्मोंका संवर होता है नही उसी नाम वाले बन्धन व संघातनामकर्मीका संवर होता है।
स्पर्शादि नामकर्म २० है, उन्हे मूल नामसे ४ मानकर ४ का सवर बताया है । इस तरह १६ नम्बर कम रहते थे, सो जहाँ (नवमे गुणस्थानमे) इन ४ का सवर बताया सो २० का ही सवर समझना।।
प्रश्न 0०-अतीतगुणस्थानमे कितनी प्रकृतियोका संवर है ?
उत्तर-अतीतगुणस्थानमे (सिद्ध भगवान) मे समस्त कर्म प्रकृतियोका सदाके लिये सवर रहता है । क्योकि अत्यन्त निर्मल, द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मसे मुक्त सर्वथा शुद्ध वहाँ शुद्धोपयोग बर्तता रहता है।
प्रश्न ८१-सवरकी विशेषतामे क्या उपयोगकी विशेपता कारण नही है ?
में उत्तर–उपयोगकी विशेषताका भी कारण मोहका भाव व अभाव है। सवरप्रदर्शक उपयोगके प्रकारसे भी मोहका तारतम्य व प्रभाव समझना चाहिये।
प्रश्न ८२–उपयोगके कितने प्रकार है ?
उत्तर- उपयोगके ३ प्रकार है- (१) अशुभोपयोग, (२) शुभोपयोग और (३) शुद्धोपयोग।
प्रश्न ८३–अशुभोपयोग किन गुणस्थानोमे है ?
उत्तर-मिथ्यात्व, सासादनसम्यक्त्व ओर मिश्रसम्यक्त्व, इन तीन गुणस्थानोमे ऊपर ऊपर मन्द मन्द रूपसे होता हुआ अशुभोपयोग है।
प्रश्न ८४- शुभोपयोग किन गुणस्थानोमे है ?
उत्तर- अविरतसम्यक्त्व, देशविरत और प्रमत्तविरत, इन तीन गुणस्थानोमे ऊपर ऊपर शुद्धोपयोगकी साधकताके विशेषसे होता हुआ शुभोपयोग है ।
प्रिश्न ८५- शुद्धोपयोग किन गुणस्थानोमे है ?
उत्तर-शुद्धोपयोग दो प्रकारोमे होता है- (१) एकदेशनिरावरणरूप शुद्धोपयोग, (श सर्वदेशनिरावरणरूप शुद्धोपयोग । इनमेसे एकदेशनिरावरणरूप शुद्धोपयोग अप्रमत्तविरत गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय नामक बारहवे गुणस्थान तक ऊपर ऊपर बढ़ती हुई निर्मलताको लिये हुए होता है।
प्रश्न ८६- इसे एकदेशनिरावरण शुद्धोपयोग क्यो कहते हैं ?
उत्तर- इन शुद्धोपयोगमे शुद्ध चैतन्यस्वभावस्वरूप निज प्रात्मा ध्येय रहता है और इसका पालम्बन भी होता है । इस कारण यह उपयोग शुद्धोपयोग तो है, किन्तु केवल ज्ञानरूप शुद्धोपयोगकी तरह शुद्ध नही है, अतः इसे एकदेशनिरावरण शुद्धोपयोग कहते है ।