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द्रव्यसंग्रह--प्रश्नोत्तरी टीका माना गया है, ऐसे आत्माके साथ कर्मका बन्ध हो जाना युक्त ही है।
प्रश्न :- आत्माके साथ कर्मका एकाकार हो जानेका क्या अर्थ है ?
उत्तर- आत्माका व कर्मस्कन्धोका एकक्षेत्रावगाह हो जाना, उनमे निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध हो जाना एकाकारताका अर्थ है । ऐसा होनेपर भी निश्चय प्रत्येक द्रव्य अपने आपमे ही है, अतः स्वतन्त्र है।
प्रश्न १०-भावबन्ध और भावात्रवमे क्या अन्तर है ?
उत्तर--भावबन्धमे कर्मबन्धको निमित्तता है और भावात्रवमे कलिवकी निमित्तता है । भावबन्ध व्याप्य है और भावास्रव व्यापक है। अब द्रव्यबन्धके भेद व भेदोका कारण दिखाते हैं
पयडिविदिअणुभागप्पदे स भेदाहु चदुविदोबधो । __जोगा पयडिपदेसा ठिदि अणुभागा कसायदो होति ॥३३॥ अन्वय-बन्धो पयडिटिदिनणुभागप्पदे स भेदाहु चदुविदो। पयडिपदेसा जोगा हिदि अणुभागा कसायदो होति ।
अर्थ-बन्ध प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे ४ प्रकारका होता है । उनमे से प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध तो योगसे होते है तथा अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध कषायसे होते है।
प्रश्न १-- प्रकृतिबन्ध किसे कहते है ?
उत्तर-जीवको विभाव पर्यायमे ले जानेके लिये कर्मस्कन्धोमे पृथक्-पृथक् प्रकृतियो का (आदतो या स्वभावोका) पड़ जाना प्रकृतिबन्ध है ।
प्रश्न २-ज्ञानावरणकर्मकी क्या प्रकृति है ? उत्तर- ज्ञानावरणकी प्रकृति आत्माके ज्ञानगुग्णको आच्छादित करनेकी है। प्रश्न ३-दर्शनावरणकर्मकी क्या प्रकृति है ? उत्तर-- दर्शनावरणकर्मकी प्रकृति आत्माके दर्शनगुणको आच्छादित करनेकी है। प्रश्न ४-- मोहनीयकर्मकी क्या प्रकृति है?
उत्तर- जीवको हेय और उपादेयके विवेकसे भी रहित कर देनेकी प्रकृति मोहनीयकर्मकी है।
प्रश्न ५-- अन्तरायकर्मकी क्या प्रकृति है ? उत्तर-- दान, लाभ प्रादिमे विघ्न करनेकी प्रकृति अन्तरायकर्मकी है। प्रश्न ६- वेदनीयकर्मकी क्या प्रकृति है ? उत्तर- वेदनीयकर्मकी प्रकृति अल्पसुख और बहुत दुख उत्पन्न करनेकी है।
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