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गाथा ३२
१५१ वज्झदि कम्म जेण हु चेदणभावेण भावबन्धो सो।
कम्मादपतेसाणं अण्णोण्णपवेसणं इदरो ॥३२॥ अन्वय- जेण चेदणभावेण कम्मं वज्झदि सो भावबन्धो हु कम्मादपते साणं अण्णोण्णपवेसण इदरो।
अर्थ-जिस चेतनभावके निमित्तसे कर्म बधता है वह तो भावबध है और कर्म तथा प्रातमाके प्रदेशोका परस्पर प्रवेश न होना अर्थात् एकाकार होना सो द्रव्यबध है ।
प्रश्न १-- कौनसे चेतनभाव भावबन्ध कहलाते है ? उत्तर- मिथ्यात्व, राग और द्वेप भावबन्ध कहलाते है । प्रश्न २- मिथ्यात्व आदि भाव भावबध क्यो है ?
उत्तर-- मिथ्यात्वादि भाव अखण्ड निज चैतन्यस्वभावके अनुभवसे विपरीत है, विरुद्ध भाव है, अतः भावबन्ध है। - प्रश्न ३-बन्धमे तो दोका सम्बन्ध है, यहां दो क्या तत्त्व है जिनका बध हो ?
उत्तर—यहाँ उपयोग और रागादि सम्बन्ध हुआ है अर्थात् चैतन्यगुणके विकासमे चारित्रगुणका विकृत विकास अभिगृहीत हुआ है, अतः अर्थात् उपयोगभूमिमे रागादिके सम्बध होनेसे भावबन्ध कहलाता है।
प्रश्न ४-यह चेतनभाव शुद्ध है अथवा अशुद्ध ? उत्तर- यह चेतनभाव अशुद्ध है, क्योकि कर्मरूप उपाधिको निमित्त पाकर हुआ है। प्रश्न ५- भावबन्धको तरह क्या द्रव्यबन्ध भी एक ही पदार्थमे होता है ?
उत्तर-- द्रव्यबन्ध एक जातिके पदार्थोमे होता है अर्थात् पुद्गलकर्मका पुद्गलकर्मके साथ बन्ध होना द्रव्यबन्ध है ।
प्रिश्न ६- यहां आत्मा और कर्मके परस्पर बन्धको द्रव्यबन्ध कैसे कहा ?
उत्तर- यह दो जातिके द्रव्योका बन्ध है, इसे भी द्रव्यबन्ध कहते है । इस द्रव्यबन्ध का दूसरा नाम उभयबन्ध है।
प्रश्न ७- क्या केवल एक पुद्गलकर्ममे द्रव्यबन्ध नही माना जा सकता?
उत्तर-प्रकृति, प्रदेश, स्थिति व अनुभागके बन्धकी अपेक्षासे एक पुद्गलकर्ममे द्रव्यबन्ध माना जा सकता है। किन्तु यह बन्ध केवल एक परमाणु या सख्यात असख्यात परमागुमोके स्कन्धमे भी नही बनता । बनता तो अनन्त परमाणुमोके स्कन्धमे, फिर भी सूक्ष्मदृष्टि से उसी स्कन्धके एक-एक परमाणमे भी वह सव है।
प्रश्न ८-आत्मा तो अमूर्त है, उसके साथ मूर्तकर्मका बंध कैसे हो जाता है ? Sadत्तर-संसारी आत्मा कर्मबन्धनसे बद्ध होनेके कारण कर्मसम्बन्धसे कथचित मूर्त