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गाथा ३०
१२७ मे समा जाता है। उस समय मुनिकी शका निवृत्त हो जाती है । इस आहारक शरीरके निमित्तसे जो योग होता है उसे आहारककाययोग कहते है ।
प्रश्न १००- आहारकमिश्रकाययोग किसे कहते है ?
उत्तर-यह आहारकशरीर जब तक पूर्ण बन नही लेता तब तक ग्राहारक मिश्रकाय कहलाता है । इस आहारकमिश्रकायके निमित्तसे होने वाले योगको आहारकमिश्रकाययोग कहते है । इस अपर्याप्ति अवस्थानमें औदारिक वर्गणा व आहारकवर्गणा दोनोका सम्मि-' लित ग्रहण है।
प्रश्न १०१-कार्माणकाययोग किसे कहते है ? जिउत्तर-कोई जीव मरकर दूसरी गतिमे मोडे वाली विग्रहगतिसे जावे तो उसके उस रास्तेमे केवल कार्माणकायके निमित्तसे होता है तथा समुद्घातकेवलीके प्रतर और लोकपूरण समुद्घातमे केवल कार्माणकायके निमित्तसे योग होता है। उस योगको कार्माणकाययोग कहते है।
प्रश्न १०२-- इन सब प्रास्रवोके जाननेसे क्या लाभ है ?
उत्तर-ये सब आस्रव विभावरूप है, मैं मात्र चैतन्यरवरूप हू । इस प्रकार अन्तर जाननेसे भेदविज्ञान होता है तथा भूतार्थनयसे आस्रवका जानना निश्चय सम्यक्त्वकी उत्पत्ति का कारण है।
प्रश्न १०३- भूतार्थनय किसे कहते है ?
उत्तर-- एकके गुणपर्यायोको उस ही एककी ओर झुकते हुए उस एकमे ही जाननेको भूतार्थनय कहते है। श्वयनय प्रश्न १०४- भूतार्थनयसे आस्रवका जानना किस प्रकार है ?
उत्तर-ये सब आस्रव पर्याये हैं । किस द्रव्यकी है ? जीवद्रव्यको । जीवद्रव्यके किस गुणको है ? मिथ्यात्व तो सम्यक्त्व (श्रद्धा) गृणकी पर्यायें है और योग योगशक्तिकी पर्याये है. शेप सब चारित्रगुणकी पर्याये है । इस प्रकार द्रव्य, गुण, पर्यायोको यथार्थ जानकर एकत्वको और उपयोग जावे, इस प्रकार जानना भूतार्थनयका जानना होता है। जैसे यह लोभ पर्याय चारित्रगुणकी है, इस बोधमे पर्यायष्टिसे गौण हो जाती है और गुणदृष्टि मुख्य हो जाती है पुनः चारित्रगुण जीवद्रव्यका है, इस बोधमे गुणदृष्टि गौण हो जाती है और द्रव्यदृष्टि मुख्य हो जाती है । पश्चात् द्रव्यदृष्टिमे विकल्पका अवकाश न होनेसे द्रव्यदृष्टि भी छूटकर केवल सहज आनन्दमय परिणमनका अनुभव रह जाता है । इस शुद्ध आत्मतत्त्वको अनुभूतिको निश्चय सम्यक्त्व कहते है।
इस प्रकार भावास्रवके स्वरूपका विशेष रूपसे वर्णन करके अब द्रव्यात्रवके स्वरूपका