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प्रश्न १० - अलोकाकाशमें तो कालद्रव्य है नही, फिर अलोकाकाशका परिणमन कैसे हो जाता है ?
उत्तर - लोकाकाशमे स्थित कालद्रव्यके निमित्तसे समस्त श्राकाशका परिणमन हो जाता है ।
प्रश्न ११ -- लोकाकाशमें रहने वाले कालद्रव्यका निमित्त पाकर लोकाकाशका हो परिणमन होना चाहिये ?
उत्तर - प्रकाश एक अखण्ड द्रव्य है, इसलिये आकाश मे जो एक परिणमन होता वह पूरे आकाश होता है । जैसे एक कीलीपर चाक घूमता है तो निमित्तभूत कीलो तो चाक के बीच भागके क्षेत्र में ही ' है सो कीलीपर जितना चाकभाग है केवल उतना ही भाग नही घूमता, किन्तु पूरा चाक घूमता है ।
प्रश्न १२ - इस प्राकाशद्रव्य के परिज्ञानसे हमे क्या शिक्षा लेनी चाहिये ?
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उत्तर - यद्यपि व्यवहारदृष्टि से देखनेपर यह सत्य है कि मेरा ( आत्माका) वास नाकाशप्रदेशोंमे है तथापि निश्चयदृष्टिसे मेरा वास आत्मप्रदेशो में ही है । इसके २ हेतु हैं - (१) अनादिसे ही तो आत्मा है और अनादिसे ही आकाश है। ऐसा भी कभी नही हुआ कि श्रात्मा कही अन्यत्र था और फिर श्राकाशमे रखा गया । (२) आत्मा स्वयं सत् है, अपने गुण पर्यायरूप है, आकाश भी स्वय सत् है वह अपने गुरणपर्यायरूप है, इस कारण कोई भी द्रव्य किसी भी द्रव्यका श्राधार नही है । प्रत मै श्राकाशद्रव्यसे दृष्टि हटाकर केवल निज ग्रात्मarast देखूं यह शिक्षा हमे ग्रहण करनी चाहिये ।
इस प्रकार प्रकाशद्रव्यका वर्णन करके अब कालद्रव्यका प्ररूपण करते है ---- दव्वपरिवदृरूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो | परिणामादिलक्खो वट्टरणलक्खो य परमट्टो ॥ २१ ॥
ग्रन्वय-- जो परिणामादीलवखो दव्व परिवट्टरूवो सो ववहारो कालो हवेइ य वट्टणलक्खो परमट्टो |
अर्थ — जो परिणाम, श्रादि द्वारा जाना गया व द्रव्योके परिवर्तन से जिसकी मुद्रा है वह तो व्यवहार काल है प्रोर जिसका वर्तना ही लक्षण है वह निश्चयकाल है । प्रश्न १- व्यवहारकाल किसे कहते है ?
उत्तर-व्यवहारमे घटा, दिन आादिका जो व्यवहार किया जाता है उसे व्यवहारकाल कहते है |
प्रश्न २ -व्यवहारकालके कितने भेद है ?
उत्तर-- समय, मावली, मेकिड, मिनट, घंटा, दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, व आदि