________________
गाथा १३
प्रिश्न ६०-अनाहारक तो छहों कायके जीवोमे हो जाता है, वह कैसे उपादेय है ?
उत्तर- इस उपादेय अनाहारकत्वमे ससारी अनाहारकोका ग्रहण नही करना, किन्तु सिद्ध भगवानका ग्रहण करना । सिद्धप्रभुके नोकर्मवर्गणावोका कभी भी ग्रहण नही होता । .. प्रश्न ६१-- अन्य सर्व मार्गणास्थान क्यो हेय है ?
उत्तर-- ससारी जीवोके उक्त सब प्रकार कर्मोका उदय, उपशम, क्षयोपशम उदीर णादिका निमित्त पाकर होते है, वे स्वाभाविक भाव नही है।
प्रश्न ६२ क्षायिक भाव भी तो कर्मोके क्षयसे उत्पन्न होता है, वह कैसे स्वाभाविक भाव है ।
उत्तर-कर्मोक क्षयको निमित्त पाकर होने वाला भाव यद्यपि इस निमित्तदृष्टिसे क्षयकालमे नैमित्तिक भाव है तथापि आगे सब समयोमें अनैमित्तिक भाव है, अतः स्वाभाविक भाव है तथा क्षयकालमे भी कर्मोंका अभाव होनारूप ही तो निमित्त कहा है, सो कर्मोके प्रभाव से होनेके कारण स्वाभाविक भाव है।
प्रश्न ६३- मार्गणास्थानोमे अन्तिम भेद द्वारा बताया गया निर्मल परिणमन कैसे प्रकट होता है ?
उत्तर- उन-उन समस्त मार्गणास्थानोसे विलक्षण शुद्ध चैतन्यस्वभावके अवलम्बनसे वह वह निर्मलपरिणमन उत्पन्न होता है। जैसे नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव, गतिरहित (सिद्ध), पांचों पर्यायोसे विलक्षण चैतन्यस्वभावके अवलम्बनसे गतिरहित परिणमन प्रकट होता है । एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय और इन्द्रियरहित-इन छह पर्यायोसे विलक्षण सनातन चैतन्यस्वभावके अवलम्बनसे इन्द्रियरहित परिणमन प्रकट होत है । इत्यादि प्रकारसे सब मार्गणावोमे लगा लेना चाहिये ।
प्रश्न ६४-- क्या उन निर्मल पर्यायोके भिन्न-भिन्न साधन है ?
उत्तर- नही, एक सनातन चैतन्यस्वभावके अवलम्बनमे ही गतिमार्गणा भेदरहित इन्द्रियमार्गणा भेदरहित, कायमार्गणा भेदरहित आदि द्वारा विशेषित वह सर्वचैतन्यस्वभाव अन्तनिहित है । वह एक ही है और है अनादि, अनन्त, अहेतुक, परमपारिणामिक भावमय कारणपरमात्मा, समयसार, शुद्धात्मतत्व प्रादि संकेतो द्वारा गम्य ।
प्रश्न ६५-- शुद्धनयसे ये सभी जीव शुद्ध किस प्रकारसे है ?
उत्तर- शुद्धनय वस्तुके अखंड स्वभावको देखता है । कालगत, क्षेत्रगत, शक्तिगत भेद को यह नय विषय नहीं करता । इस शुद्धनयका अपर नाम परमशुद्धनिश्चयनय है । शुद्धनर की दृष्टिमे मात्र चैतन्यस्वभाव है । इस दृष्टिसे सभी जीव स्वभावसे शुद्ध है।
प्रश्न ६६—यह शुद्ध पारिणामिक भाव तो शाश्वत है ही, उसका करना ही क्या रह