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गाथा १५ '
द्वितीय अधिकार अज्जीवो पुणणेप्रो पुग्गल धम्मो अधम्म प्रायास।
कालो पुग्गल मुत्तो रूवादिगुणो अमुत्ति सेसादु ॥१५॥ अन्वय-पुणापुग्गल धम्मो अधम्म प्रायासं कालो अज्जीवोणेवो पुग्गल रूवादिगुणो मुत्तो दुसेसा अमुत्ति ।
अर्थ- और फिर पुद्गल, धर्म, अधर्म, प्राकाश और कालद्रव्य-इन पांचोको प्रजीव जानना चाहिये । उनमे से पुद्गलद्रव्य तो रूपादि गुण वाला है, इसलिये मूर्तिक है और शेषके धर्म, अधर्म, आकाश और काल-ये चार द्रव्य अमूर्तिक है।
प्रश्न १- परम उपादेय शुद्ध जीवद्रव्यके वर्णनके बाद अजीवोके वर्णनका क्या प्रयोजन है ?
- उत्तर-- जीवतत्त्व उपादेय है और अजीवतत्त्व हेय है। हेय तत्त्वको जाने बिना उसे कैसे छोडा जाय और अजीवतत्त्व छोडे बिना जीवतत्त्व कैसे उपादेय बनेगा ? इस कारण अजीवतत्त्वका वर्णन किया ।
प्रश्न २-- तब तो अजीवतत्त्वका पहिले वर्णन करना था ?
उत्तर-जीवतत्त्व प्रधान है, इसलिये जीवतत्त्वका पहिले वर्णन किया अथवा अजीव उसे कहते है, जो जीव नही। सो अजीवका स्वरूप जाननेके लिए जीवके स्वरूपका वर्णन पहिले आवश्यक ही है।
प्रश्न ३- अजीव किसे कहते है ?
उत्तर- जिसमे जीवत्व अर्थात् चेतना न हो उसे अजीव कहते है। इन अजीवद्रव्यों मे किसी भी प्रकारकी चेतना नही है।
प्रश्न ४- चेतना कितने प्रकारको होती है ?
उत्तर- चेतना शक्तिकी अपेक्षा तो एक ही प्रकारकी है, विकासकी अपेक्षा तीन प्रकार की है-(१) कर्मफलचेतना, (२) कर्मचेतना और (२) ज्ञानचेतना ।
प्रश्न ५- कर्मफलचेतना किसे कहते है ?
उत्तर- ज्ञानके अतिरिक्त अन्य भावोमे व पदार्थोमें मै इसे भोगता है, ऐसा सवेदन करना कर्मफलचेतना है । इसमे अव्यक्त सुख दुःखका अनुभव भी अन्तनिहित है।
प्रश्न ६- कर्मफलचेतना किन जीवोके होती है ? उत्तर- कर्मफलचेतना एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असशी पञ्चेन्द्रियमें