________________
गाथा
(3) परमशुद्धनिश्चयनय । इनमे अशुद्धनिश्चयनयका प्रतिपादन उपचरित अशुद्ध सद्भूतव्यवहार है और शुद्धनिश्चयनयका प्रतिपादन अनुपचरित शुद्ध सद्भूतव्यवहार है।।
प्रश्न ५-- अशुद्धनिश्चयनयमे जीव किसका भोक्ता है ?
उत्तर- अशुद्धनिश्चयनयसे जीव अशुद्ध चेतनभाव अर्थात् हर्ष-विषादादि परिणामका भोक्ता है । हर्प-विपादादि विभाव है, अत' अशुद्ध है, किन्तु है जीवके ही परिणमन, अतः निश्चयनयसे है, पर्याय है, अतः व्यवहार है । इस प्रकार जीव हर्षविपादादि अशुद्ध चेतनभाव का अशुद्धनिश्चयनयसे भोक्ता है।
प्रश्न ६- शुद्धनिश्चयनयसे जीव किसका भोक्ता है ?
उत्तर - शुद्धनिश्चयनयसे जीव अनन्त मुख आदि निर्मल भावोका भोक्ता है । अनन्त सुख प्रादि जीवके स्वाभाविक गुद्ध भाव है, अत इनका भोक्तृत्व शुद्धनिश्चयनयसे है ।
प्रश्न ७- परमशुद्धनिश्चयनयसे जीव क्सिका भोक्ता है ?
उत्तर-परमशुद्धनिश्चयनयसे जीव अभोक्ता है, क्योकि परमशुद्धनिश्चयनयकी दृष्टिसे भोक्ता भोग्य प्रादि कोई विकल्प भेद नहीं है । यह नय तो केवल, शुद्ध, निरपेक्ष स्व. भावको विषय करता है।
प्रश्न ८-इस भोक्तृत्वके विवरणसे हमे क्या शिक्षा लेनी चाहिये ?
उत्तर- व्यवहारनयसे जो भोक्तृत्व बताया है वह तो असद्भूत ही है, इसलिये वस्तुस्वरूप जानकर यह प्रतीति हटा देनी चाहिये कि मैं विपयोसे अथवा कर्मोंसे मुख या दुखको भोगता हू।
प्रश्न ६- तब मै यह मुख दुख किसमे पाता हूँ?
उत्तर- सुख दुःख मैं अपने गुणोके परिणमनसे पाता हू । कर्मोदय तो बाह्य निमित्तमात्र है और विषय केवल आश्रयमात्र है।
प्रश्न १०-यह मुख दुःख क्यो उत्पन्न हो जाता है ?
उत्तर-निज शुद्ध चैतन्यस्वभावका श्रद्धान, ज्ञान एव अनुचरण न होनेसे उपयो। अनात्माकी ओर जाता है और तब बाह्य पदार्थोका आश्रय बनानेसे सुख दुखका उसमे वेदन होने लगता है।
प्रश्न ११- इम मुख दु ग्वका भोक्तृत्व कैमे मिटे ?
उत्तर-स्वाभाविक आनन्दका भोक्तृत्व होते ही सूक्ष्म भी मुग्व दुःखका भोक्तृत्व मिट जाता है।
प्रश्न १२-जीव स्वाभाविक प्रानन्दका भोक्ता कैसे होता है ? उतर-नित्य निरञ्जन अविकार चैतन्य परम स्वभावकी भावनामे स्वाभाविक