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गाथा २१ (6) चतुरिन्द्रिय पर्याप्त, (१०) चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, (११) असंजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त, (१२) असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, (१३) सज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त, (१४) सज्ञो पचेन्द्रिय अपर्याप्त ।
प्रश्न २२-इन १४ प्रकारके जीवसमासोमे से कौनसा भेद उपादेय है ?
उत्तर- इनमेसे एक भी प्रकार उपादेय नही है, क्योकि ये सब विकृत पर्यायें है और इनका आकुलतावोसे जन्म है, आकुलतावोको जनक है ।
प्रश्न २३- तब कौनसी अवस्था उपादेय है ?
उत्तर- अतीत जीवसमासकी अवस्था उपादेय है, क्योकि वहां प्रात्मा सम्पूर्ण गुण स्वाभाविक पर्यायपरिणत हो जाते है, अतः वह अवस्था सहज अनन्तानन्दमय है ।
प्रश्न २४-अतीत जीवसमास होनेका उपाय क्या है ?
उत्तर- जीवसमाससे पृथक् अनादि अनत निज चैतन्यस्वभावकी उपासना अतीत जीवसगस होनेका बीज है ।
इस प्रकार ससारी जीवोका जीवसमास द्वारा विवरण करके अब इस गाथामे मार्गणा व गुणस्थानोका वर्णन करके नयविभागसे शुद्धता व अशुद्धताका विभाग बताते है
मग्गण गुणठाणेहि चउदसहि हवति तह पसुद्धणया ।
विण्णेया संसारी सत्वे सुद्धा दु मुद्धणया ॥१३॥ अन्वय- तह संसारी असुद्धणया मग्गणगुणठाणेहि चउदसहि हवति । दु सुद्धणया सब्वे सुद्धा विण्णेया। . अर्थ- तथा समारी जीव अशुद्धनयसे १४ मार्गणा व १४ गुणस्थानोके द्वारा १४-१४ प्रकारके होते है, किन्तु शुद्धनयसे सभी जीव शुद्ध जानना चाहिये ।
प्रश्न १- गुणस्थान किसे कहते है ?
उत्तर--मोह और यो के निमित्तसे सम्यक्त्व और चारित्र गुणोकी जो अवस्थायें होती है उन्हे गुणस्थान कहते है।
प्रश्न २-गुणस्यान कितने होते है ?
उत्तर-गुणस्यान तो असंख्याते होते हैं, क्योकि प्रात्मगुणोके परिणमन असंख्याते प्रकारके है, किन्तु उन्हे प्रयोजनानुसार सक्षिप्त करके १४ प्रकारका कहा है । वे ये है(१) मिथ्यात्व, (२) सासादन सम्यक्त्व, (३) सम्यग्मिथ्यात्व, (४) अविरतसम्यक्त्व, (५) देशविरत, (६) प्रमत्तविरत, (७) अप्रमत्तविरत, (८) अपूर्वकरण, (९) अनिवृत्तिकरण (१०) सूक्ष्मसाम्पराय, (११) उपशान्तकपाय, (१२) क्षीणकपाय, (१३) सयोगकेवली, (१४) प्रयोगवनी।